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छन्द की दृष्टि से तित्थोगाली प्रकीर्णक
का पाठ निर्धारण
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अतुल कुमार प्रसाद सिंह*
प्रकीर्णक शब्द 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से 'क्त' प्रत्यय सहित निष्पन्न 'प्रकीर्ण' शब्द से 'कन्' प्रत्यय होने पर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है - नाना संग्रह, फुटकर वस्तुओं का संग्रह और विविध वस्तुओं का अध्याय। जैन साहित्य में 'प्रकीर्णक' विशेष पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिसका सामान्य अर्थ है' - मुक्तक वर्णन। आचार्य आत्माराम जी ने प्रकीर्णक की व्याख्या निम्न प्रकार से की है- “अरिहन्त के उपदिष्ट श्रुतों के आधार पर श्रमण निर्ग्रन्थ भक्ति भावना तथा श्रद्धावश मूलभावना से दूर न रहते हुए जिन ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं।" परम्परागत मान्यता के अनुसार जिस तीर्थंकर के तीर्थ में जितने साध होते हैं उस समय उतने ही प्रकीर्णक माने गये हैं। इस प्रकार भगवान् महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं के इतने ही प्रकीर्णक होने चाहिए पर यह केवल मान्यता है। वर्तमान में उपलब्ध अधिकतम ३३ प्रकीर्णक हैं जिनमें से मात्र १० प्रकीर्णक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में आगम-रूप में मान्य हैं।
__ इस लेख का विषय तित्थोगाली प्रकीर्णक में कतिपय गाथाओं के पाठ का छन्द की दृष्टि से पुनर्निर्धारण है। इसके लिए मुनि पुण्य विजय जी द्वारा संपादित और महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से दो भागों में प्रकाशित पइण्णय सुत्ताई नामक ग्रंथ में संकलित ३२ प्रकीर्णकों में से २०वां तित्थोगाली नामक प्रकीर्णक के पाठ को आधार माना गया है। इस प्रकीर्णक में कुल १२६१ गाथाएँ संकलित हैं, जिनमें कई गाथाओं के पाठान्तर शब्दों का उल्लेख पादटिप्पण या गाथा में ही कोष्ठक में किया गया है। तथा उनमें से कई एक पाठ निर्धारित न कर उसें यो ही छोड़ दिया गया है। प्रस्तुत लेख में इन गाथाओं का छन्द की दृष्टि से पाठ निर्धारित करने का प्रयास किया गया
प्रस्तुत तित्थोगाली प्रकीर्णक में सर्वाधिक गाथाएँ 'गाथा' छन्द में निबद्ध हैं। मात्र २० पद्य 'अनुष्टुप छन्द की, ६ पद्य 'गाहू' छन्द की और ७ पद्य 'उद्गाथा' छन्द में निबद्ध हैं। इनमें अनष्टप की बीस पद्यों में से पाँच (गा० १११५ से १११९) गाथाएँ समवायांग में प्राप्त होती हैं तथा सात गाथाएँ (११२१-२७) समवायांग सूत्र * शोधछात्र, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, प्राच्य विद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।