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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
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मूलपाठ-दूजा पुनि, प्राप्त= मिलेंगे. मनुष्य की प्राणवाहिनी नाड़ियाँ असंख्य हैं । इनमें प्रमुख इस प्रकार हैं- १. सुषुम्ना, इडा, पिंगला, गांधारी, हस्तजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, शूरा, कुहु, सरस्वती, वारुड़ी, अलम्बुषा, चित्रा, विश्वोदरी, शङ्खिनी आदि। वह केन्द्र जहां समस्त अवशिष्ट संवेदनाएं संचित हैं वह मूलाधार चक्र कहलाता है, वहाँ पर कुण्डलित क्रियाशक्ति को 'कुण्डलिनी' कहा जाता है। आसन के स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है। ये प्राणायाम के तीन भेद हैं। श्वास को बाहर निकालकर उसकी स्वाभाविक गति का अभाव । स्वास अंदर खींचकर उसकी स्वाभाविक गति का अभाव । श्वास-प्रश्वास दोनों गतियों के अभाव से प्राण को एकदम जहां का तहां रोक
देना -ये तीन भेद प्राणायाम के हैं। पातंजल योगप्रदीप -पृ०४४१. सब
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पसीना
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इन्द्रियों के विषयों से विमुख होकर अन्तर्मुखी होना। "स्वविषयास्मप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणा प्रत्याहारः ।। पातंजल योगप्रदीप-४५५. अंग। 'इंडा' को 'गंगा' 'पिंगला' को 'यमुना' तथा इन दोनों के मध्यस्थान में जाने वाली नाड़ी सुषुम्ना को 'सरस्वती' कहते हैं। इस त्रिवेणी के संगमस्थान को त्रिवेणी संगम कहते हैं जो कि भृकुटी के भीतर है - पांतजल योगप्रदीप - पृ० २४१. भौतिक जगत् के परे जो दिव्यध्वनि हैं, जो सभी ध्वनियों का स्रोत है।स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, आसनप्राणयाममुद्राबंध, पृष्ठ-३५२. स्वामी सत्यानंद सरस्वती 'सोऽहं' जाप की सम्पूर्ण योग प्रक्रिया - 'ध्यान' तन्त्र के आलोक में, - पृ० १६६. किसी मंत्र को बारम्बार दुहराने को जप कहते हैं, परन्तु जब मंत्र की सहज ही आवृत्ति होने लगती है तब जप-अजपा बन जाता है। वही, १५वां अध्याय, पृष्ठ १५०.