________________
जोगरत्नसार (योगरत्नसार)
संदर्भ
ors
mix s
o vsi
&
जैनसिद्धान्तभास्कर, वर्ष ४२, १९८९, ई०, पृ. ३८. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' पृष्ठ १८०-१८१. लेखक ने योग विद्या के गुरुनाम उद्घोष किया। (१) सत (२) रज (३) तम (प्रकृति के गुण)-पातञ्जलि योगप्रदीप, प्राचीन संस्करण, पृ० ८५. तलवार ६. दीवाल तत्त्व (यार्थ). पंचतत्त्व- पृथ्विी, अप, तेज, वायु और आकाश. त्रिकुटी - दोनों भौहों के मध्य का स्थान। इसे भ्रूमध्य भी कहते हैं. षट्चक्र इस प्रकार हैं- मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरक, अनाहत,विशुद्ध
और आज्ञाचक्र. दस प्राणवायु इस प्रकार हैं -
प्राणोऽपान: समानश्चोदान व्यानौ च वायवः।
नाग: कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनंजयः । गोरक्षसंहिता प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म, कूकर, देवदत्त और धनंजय। इनमें आरम्भिक ५ वायु मुख्य हैं, शेष पांच वायु का कार्य इसी चौपाई में बतलाया है। प्रारम्भ की पांच वायु में प्राणवायु हृदय में, अपान गुह्यदेश में, समान नाभिमण्डल में, उदान कण्ठ में और व्यानवायु सम्पूर्ण शरीर में स्थित है। पातंजल योगप्रदीप, (प्राचीन संस्करण), पृ० २५५-२६ अष्टांग इस प्रकार हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि. षट्कर्म धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौति और कपालभाति। त्राटक अष्टांगयोग में 'इडा' नाड़ी को 'चन्द्र' और 'पिंङ्गला' नाड़ी को 'सूर्य' नाम से अभिहित किया जाता है। हिंसा
११.
१२.
or
or
१५.