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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
अचरज रूप अचरज दृष्टाना, अचरज मिल्या अचरज गलताना। ४१।। दोहरा
अचरज कहीये आत्मा, अचरज जाका भेष। अचरज मिलि अचरज भया, अचरज ताकौ देष ।।४।।
चौपाई
अचरज होई अचरज जब पाया, अचरज उपजै अचरज विसमाया। पद अपद दो अचरज जान, है नाही की संधि पिछाण। गुरु प्रसादि मगन गति पाई, कथन वदन की सभ सुधि जाई कहै मगन मगन सो नाहीं, बहुरि न आवै जो जन जाही। मृतक होई भया विदेह, निज समाधि के लक्षण एह। तहां है अलख और ही दूजा, ना तहां जीव ब्रह्म की पूजा। नां तहां सुन्न शब्द आकाश, नां तहां मध्य सूक्षम विस्तार। नां तहां तीनि लोक ब्रांडा, नां तहां दिवस-राति रवि-चदा ।
शून्य अशून्य नां तहां होऊ, दोऊ की संधि लखै जन कोऊ।।४३।। दोहरा
सन्य-अशन्य नहि आत्मा, कहिया कछ न जार्ड। है नाही की संधि मै, सतगुरु रहै समाई ।।४४।। तिहि प्रसादि अनभय प्रगटांनी, सौम्य बुद्धि तब उपजी वानी। अष्टांग जोग का भेद बखाना, आत्म रूप तातें निज जान्यां।
अध्यात्म विद्या यह कहीये भाई, भिन्न भिन्न करि प्रगटाई दिखाई। ग्रन्थ-नाम
अष्टांग जोग ग्रंथ मैं भाख्या, रलजोग नाम ग्रंथ का राख्या। गुरु उपदेश जो समझै कोइ, आत्मतत्व को पावैं सोई। जोगारम्भ आदि है लोई, जो साथै सो सिद्धा होई। आत्मभेद या मांहि बताया, भिन्न भिन्न कर प्रगटाई सुनाया। जो समझे तिस रहे न संका, भावै कोउ सुनौ राज के रंका
समझि विचार जो करणी करै, गुरु प्रसादि कबहूं नहिं मरै ।।४५।। दोहरा
आदि अंति विधि जोग की, वरनी तत्त्व विचार। मनसा-वाचा-कर्मणा, रत्नजोग जिन सार ।।४६।। इति श्री रत्लजोगशास्त्र भाषा समाप्त।।
।।शुभं/भूयात।।