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श्रमण / जनवरी-मार्च १९९९
दोहरा
चौपाई
दोहरा
तहां भंवर गुफा का पश्चिम घाट, मेरुदंड शिर ऊपर वाट । तहां करै महारस अमृतं नीर, रुधिर पलटै होवे खीर (क्षीर) । रोग- शोग सुपनै नहीं आवै, जो को भेद खेचरी पावै । क्षुधा तृष्णा - मोह नहीं व्यापै, जरा मरण नहि दुःख संतापै । सकल मुद्रा महि खेचरी परधान, सिद्ध परम दोउ उत्तम जान। जब चौघट घाट-वाट तरि आवै, तब आगे मारग सुधा पावै । । ३३ ॥
जन्म-मरण का
शंका
सुरत समानी शब्द में, निज
गया, निहचल भया शरीर । स्वरूप गृह (घर) धीर ।। ३४ ।।
अब अष्ट
गुरु
पर्व्वत है उत्तरखंड, ताकै उपरि सप्त ब्रांड | प्रसादि चढ़या अकाश, तीन दल घर चौथे वास । षट् गढ़ भेद गगन चढि गाज्या, अनहद उपजी अनहद वाज्या | त्रिकुटी ज्योति अचरज दृष्टाना, अचरज देखि भवर उलष्ठाना। अनाद अनहदर २ तहां किंगुरी बाजै, अवृंत वरसै गगना गाजै । गर्जि- गर्जि वरसै नित गगना, पश्चम हूँ उलटे मन मगना । सुन्न सरोवर सुरत समावै, सुद्ध होई अचरज पद पावै । गाजै गगन चमकै नित ज्योति, कंधर वरखै माणक मोती । सुत्र सरोवर तहां अचरज देखै, है नाही तहां सम कि पेखै। उन-मन घाट - मन जाई समाना, कथन वक सकल विसराना । । ३५ ।।
उन- मन
लागी सुन्न में, निसदिन तन- मन की तहां सुध गई, पाया
३९
रहै गलतान ।
पद निर्वाण ।। ३६ ॥
चौपाई
जैसा अगम पंथ अमीस्थान, मान सरोवर कवल विगसान । अनंत हजार जहां पंखडी जागी, अजपाजप ३ सौ डोंडी लागी । तामै परमहंस का वासा, सोहं शब्द तहां परगासा । तामै चैतन्य पुरुष का वासा, उलटै कवल तब होई विगासा । तहां ब्रह्मरंध ३४ की सूक्ष्म घाटी, ताकै उपरि सिल की पाटी | सो अलख रूप निरंजन स्थाना, तामै भेटीये श्री भगवाना। तिहिं यथा नमन भई प्रतीत, आत्म तत्त्व की निरमल रीत । ८. समाधि