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________________ जोगरत्नसार (योगरत्नसार) मन पवना तहां वसगत करै, विनय व्याधि काल को हरै। अप्प तत्त्व की धारणा कही, सतगुरू ते जब अनभै लही। तेज तत्त्व की धारणा अब तेज तत्त्व की धारणा जान, नैन नासिका मध्य स्थान। रक्त वर्ण त्रिकोणा है तहां, रुद्रदेव वीजलम जहां । तिह स्थान मन पवाना धरै, ब्रह्मग अग्नि को उतपत करें। अब तेज तत्त्व की धारणा जानी, गुरु किरपा तें सहज दृिष्टानी। वायु तत्त्व की धारणा चौथी धारणा वायु की पाइ, त्रिकुटी स्थान जाई लिवलाई । श्याम रंगत तहां ईश्वर देव, जैकार वीज लै कीजै सेव ।।२९।। दोहा मन पवना जब एक हुई, लीन भये निजनाद। मन-मन की तहां सुधि गई, लागी सुन्न समाध ।।३०।। मन पवना तब तिहि धरि ल्यावै, निहि चित्तवै तिहि जाई समावै। वाय तत्त्व की धारणा भाखी, कोट मध्य किन विरलै लाखी।। प्रकाश तत्त्व की धारणा आकाश तत्त्व का कवन स्वरूप, जैसे निर्मल जल को रूप। ब्रह्मरंध ताका स्थान, तत्र देत सदा शिव जान। 'ह' कार बीज आत्म है सोई, मन पवना तहाँ वसगत होई। खुल्हें कपाट अचरज दृष्टावै, आकाश धारणा ते मोक्ष पद पावै। पंच धारणा जानै कोई, भिन्न भिन्न साधै जोगी खोई आत्मतत्त्व जोग तै पावै, निज स्वरूप में जाई समावै। अब भृकुटी तिहरी मन का घाट, त्रिवेणी संगम १ तिलक ललाट। दो दल कमल समई स्थान, चंद-सूर ले तहां समान।।३१।। दोहा चंद-सूर के अंतरे, अगम अगोचर संघ। सतगुरु मिलै तपाइये, मन पवना तहां बंद ।। ३२।। खेचरी मुद्रा सुरत निरतले निहचल रहै, कछु नैन नासिका निरंतर लहै। इडा-पिंगला-सुषमना घाट, गुरु कृपा तें खुल्हे कपाट । गुरु प्रसाद कुछ गुरु लछ करे, जिव्हा उलटि करि तिहि धरि धरै। खेचरी मुद्रा का लावै वंद, उलटि वायु थिर होवै कंद। MAMXxx888888888888
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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