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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
षोडश नित सूर जै रहै, द्वादश बांधे अंमृत कहै। सब इंद्री तव सहज मिलावै, जैसे कछुवा अंकु० सुकचावै।
सो द्वादश प्राणायाम का प्रत्याहार, गुरु कृपाते कला विचार। ६. ध्यान
अब च्यारभेद ध्यान के बखाने, नासका अग्र ले मनुवा आने धूम रंग तहा पुहप प्रकास, फुनि कछु दीसै प्रत्याभ्यास। दूजै ध्यान तें ऊपर देखै, रक्त वर्ण नीलांबर पेखै। सर्व अंग तहां विजली दमकै, मिटै अंधेरा तहां अचरज चमकै। तीजी संधि भृकुटी निज द्वारा, जाके खुल्है हुई उजियारा।
दीपक लाट तहां ज्योति दिखावै, पाछे सोम मंडल हुई जावे।।२५।। दोहरा
अनंतरूप जहा देखी यहि, कह्या कछु नहीं जाई। अचरज हुई अचरज मिल्या, सतगुरु दीया लखाई।।२६।।
चौपाई
अब चौथा ध्यान गगन स्थान, तहां दीसै अलख रूप भगवान । अखंड दीपक जलै विन वाती, तहां ब्रह्मरंध की सूक्षम घाटी। अनंत रूप तहां अनंत प्रकासा, गुरु प्रताप तहां कीये निवासा।
सो निज स्वरूप स्थाना, जिन जान्या तिन गुरु मुख जान्या। ७. धारणा
अब पंच तत्त्व की धारणा कहै, जातै पिंड सदा थिर रहै। तामै बीच मंत्र सभ आवै, दुर्लभ देह कोउ जन पावै। हिरदै तलै पृथिवी स्थान, हेम रूप ताका है जान। चार कोण पृथ्वी है तहां, ब्रह्म देव वीजलम जहां। मन पवना तहां श्रमकर धरै, सुध विसरै तहां जीवत मरै।
इस धारणा ते वायु ठहरावै, काया जीति अमर पद पावै।।२७।। दोहा
पृथ्वी तत्त्व की धारणा, विरला जाणई कोइ।
मनसा-वाचा-कर्मणा, रोग शोक नहीं होई ।।२८।। चौपाई अप्प तत्त्व की धारणा
दूजी धारणा अप्प की जान, ताका कंठ बीच स्थान । प्रभाचंद सूत है रूप, वकार बीज तहां विष्णु सरूप।