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भारतीय दर्शन में तनाव-अवधारणा के विविध-रूप
(जैन-दर्शन के विशेष संदर्भ में)
____ डॉ० सुरेन्द्र वर्मा*
आधुनिक अर्थ में तनाव की अवधारणा, भारतीय संस्कृति और परंपरा में सहज रूप से नहीं देखी जा सकती; किंतु तनाव के लगभग-समानार्थक शब्द और मिलती-जुलती भावनाओं का संदर्भ हमें कई दर्शनों/दार्शनिकों में उपलब्ध है। चरकसंहिता, पातंजल-योगसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता इत्यादि कृतियों में तथा सांख्य, बौद्ध और जैन दर्शनों में तनाव शब्द का बिना उपयोग किए हुए, तनाव की ओर संकेत करने वाली अनेक अवधारणाएँ प्राप्त हो सकती हैं। दुःख, क्लेश, भय इत्यादि अनेक भाव बहुत कुछ ‘तनाव' के समानार्थक हैं। उदाहरण के लिए सर्वप्रथम हम 'क्लेश' को ही लें। क्लेश
योग-दर्शन में क्लेश के क्षय के लिए क्रिया-योग बताया गया है। यह क्लेश को दग्धकर, दग्ध-बीज के समान उसे शक्ति-हीन बना देता है। यह बहुतकुछ ‘स्ट्रेस एण्ड बर्नआउट'२ की अवधारणा के समान है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि क्लेश एक ऐसा उद्दीपक (स्टिमुलस) है जो विपरीत मानसिक वृत्ति को जन्म देता है वह हमारी मानसिकता पर तनाव (या, दबाव-स्ट्रेस) की तरह एक बोझ के समान है। हमें यह कर्म करने के लिए रोकता है। यह एक अवरोध है जो मनोवैज्ञानिक रूप से उद्वेलित करता है।
क्लेश अनेक स्तरों पर अनेक प्रकार से काम करता है। योग-दर्शन में चार प्रकार के क्लेश बताए गए हैं। ये हैं- प्रसप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। प्रसुप्त वह क्लेश है जो बीज रूप में तनाव-क्षमता की तरह स्थित है। व्यक्ति या परिस्थितियाँ सदैव तनाव-युक्त नहीं रहतीं। कुछ मानसिक/सामाजिक स्थितियाँ तनाव के अनुकूल होती हैं। उनमें क्लेश पैदा करने की सामर्थ्य होती है। ऐसी स्थितियों को ही प्रसुप्तक्लेश कहा गया है। तनु क्लेश जैसा नाम से स्पष्ट है, क्षीण-तनाव है। यह तनाव की दूसरी अवस्था है। इसमें तनाव स्पष्टत: उपस्थित तो है किन्तु उसकी प्रतिक्रियात्मक शक्ति अधिक नहीं है। विच्छिन्न क्लेश कुटिल क्लेश है। यह अन्योन्य विरोधी भावनाओं को जन्म देता है। क्लेश की अन्तिम अवस्था उदार है। विच्छिन्न क्लेश जबकि एक मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न कर व्यक्ति को तोड़ता है, उदार क्लेश व्यक्ति की मानसिकता में पूरी तरह व्याप्त हो जाता है। क्लेश की उत्तरोत्तर *पूर्व उपनिदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।