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________________ जोगरत्नसार (योगरत्नसार) १. यम अब आठ अंग के भाखौ लछन, जिव्हा इंद्री स्वाद विचछन । हंसा५ चोरी चित नहीं देवै, माया मनसा वसि करि लेवै। सत-संतोष-क्षिमा मन गहै, साध-सेवा मैं अह-निशि रहै। दंभ गर्भ१६ परपंच नहि गहै, प्रथमैं लछन काम के लहै। २. नियम नेम अंग अवर कहीयै दूजा, काया दे बल आत्म पूजा । दया-दान-संयम व्रत करें, काम-क्रोध चितते परिहरै। ३. आसन तीजा७ अंग आसन अब कहै, ताकै साथै निजपद लहै। जेते जीव तेते फुनि८ जान, तामे दोई आसन परधान । एक पद्म-सिद्धि फुनि कहीये, ए दोनों भेद सतगुरु ते लहीये । वामैं ऊपर दहना पावा दहिने ऊपर वाम धरावा ।।१३।। दोहा . उलट दृष्टि प्रकुटि धरै, हिरदै धरीये ध्यान । भंग है घट संचरै, तां भे१९ भगवान ।।१४।। आसन के मुख्य प्रकार पद्मासन चिबुक निवाई नीच फुनि धरै, दोनों हाथ पाईं को करें। वाम अगूंठा वाम कर गहै, दाहने सौ दाहना गहि रहै। इस प्रकार पद्मासन जान, अब दूजा आसन सिद्धि बखान । सिद्धासन जोनि संघ वामेंद्री धरै, उलट-पवन पछम को भरें। दजा पांव इंद्री पर धरै, कंधयोनि संपीडन करै। उलटि दृष्टि ऊपर को देखै, भूम के मध्य कछु अचरज देखै। इह प्रकार है आसन कहै, तिन्ह आसन कुं निहचल गहै। प्रथमै वाधै मूल दवारा, बिना अग्नि तहां उठै उजारा । चार दल कवल जहां लागे वंद, सप्त पाताल की छुटकी संधि । चउ के मध्ये करै निवास, तव खुल्है संखनी होई प्रकास ।।१५।। दोहा प्रथम कवल चार मूल, द्वितीय चक्र स्थान । ताकें ऊपरि षष्ठदल, गुरु किरपा ते जान ।।१६।।
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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