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दोहरा
दोहरा
चौपाई
षट्चक्र
जोगरत्नसार ( योगरत्नसार) अगम अगोचर यह मन भाई, सतगुरु पाया जुगति बताई। प्राणपिंड का भेद लखाया, सभ दिशि छांडि आपि घर आया । गुरु का शब्द गहै हथवाना, चंचल मिरगा स्थिर ठहराना । । ३ । ।
चौपाई
भरम गया तथ६अ आप पिछाना, खंड छोड पिंडे उरझाना | धरत पाताल कहीये आकाशा, तीनि लोक घर माहिं प्रकाशा | जो खंडे सो पिंडे कहीये, पिंडै सो ब्रह्मंडे लहीये । अंड रूप शरीर कौं जान्या, ताकै भीतरि सभइ स्थाना। ज्ञान भये सतगुरहि लखाया, सूक्षम में स्थूल समाया । पंचतत्त्व की महिमा
दोहरा
क्षिमा संतोष
'पूरण स्वामी' गुरु
घर पाइया, उपजी मिला, टूटी
भरम
अनभय रीत । भीतः । । ४ । ।
की
पंचतत्त्व' का पिंड पर मैं ठाना, गुरुकिरपा तें सहज दृष्टाना। तत्त्व-तत्त्व का न्यारा वास, पृथ्वी- अप्प-तेज- वायु आकाश । पृथ्वी पिंड अप्प है पावी, लोहू तेज वाय कर जानी। आकाश भास नै शब्द कीया, पंच तत्त्व का नामसम लीया । पंच तत्त्व जानै जोगिंद्रा, गुरु का शब्द ले पावै मुद्रा ।।५।।
पंचतत्त्व का पिंजरा, तामै पंछी प्राण । त्रिकुटी' ऊपर सुन्न है, तहां अलख पुरुष निरवान ।। ६ ।।
तहां प्राण पिंड विखडा भेद, मन पवना लै सुख मन छेद । अजर विंद आसा दहि वाई, युक्त बिना राखी नहि जाई । विंडु करै वाय सदा निकसै, उरध कवल कछु क्यों कर विगसै ।
वाय
षट्चक्र'
सोला प्राण- अपान- व्यान-समाना, कूर्म्य - नाग - कील- कचवाय, धनंजय नाग वाय तें उठै उद्गार, कूर्म्म वाय मैं नेत्र आधार कील कचवाई छींक कौ करै, देवदत्त जंभाई फुनि धरै ।।७।।
आधारा, चार सुन्न तीन दश द्वारा । वाय कहीयै उदाना । देवदत्त सभै समाय" ।
पंचम
धनंजय साधीये,
दृढ़कर
जोगाभ्यास |
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