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________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ शरीर को सुव्यवस्थित रखने के लिए जरूरी है। इन आरंभिक अभ्यासों के बाद प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की यथार्थ साधना संभव है और तभी अष्टांगयोग की साधना पूर्ण और सफल मानी जाती है जो कि योग विषयक इस लघुग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य विषय भी है जिसे सम्पादित रूप में पहली बार प्रकाशित करने में प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। अब यह सम्पूर्ण मूल ग्रन्थ प्रस्तुत है। "जोगरत्नसार" ॐ श्री जिनाय नमः मंगलाचरण प्रथमै वंदो आदिगुरु देवा, तिहि प्रसादि पाईये निज भेवा। आदि देव पूरण गुरु स्वामी', सर्वभूत महि अंतरजामी। आत्मा की खोज अगम अगोचन लख्यो न जाई, कहाँ सै उपजै कहां जाई समाई। ताको खोजै देव मुनिंद्रा, जती जंगम संन्यास जुगिंद्रा। आत्म आदि अलख है सोई, सभ मैं रहैं लखै जन कोई। जप-तप मैं जगत् उझाना,तन-मन का कछु खोज न जान्या। नाटारंभ करै संसारा, पूजा-पाठी बहु विस्तारा। वेद-पुरान पढ़े बहु पोथी, ग्यान बिना सगरी है थोथी। यंत्र-मंत्र बूटी पाखंडा, माया हेत सहै जमदंडा। त्रिगुण माहि जगत उरुझाना, उरझ मूवा कछु भेद न जान्या।।१।। दोहरा जगझूला जंजाल मैं, सुन-सुन कथता ग्यान । तन-मन की कछु सुध नहीं, कक-वक भया हैरान ।। आत्मा के अहितकारी चौपाई पांच चोर लागे या संगा, ताके भीतर पंच-पंच अंगा। काम-क्रोध-लोभ-मोह-माया, बिन दंता जिन सब जग खाया। तृष्णा अग्नि काया को जारै, मनसा नागिनि ले नरकि उतारै। आसा काल रहै घट माही, अहि-निशि व्यापै मर-मर जाहीं। अवर अनेक दुष्ट है लागै, सन्मुख सूझै कबहुं न भागें। गुरु-ज्ञान की महिमा ग्यान खड्ग' ले मन कुं मारै, गुरु का शब्द घट माह विचारै। 833333338888888
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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