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श्री अजरामर स्वामी करने पर भी फर्क नहीं पड़ा फिर भी उन्होंने गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ में विहार तो ठीक तौर से किया ही था किन्तु अशक्ति विशेष बढ़ने पर वि० सं० १८६४ में लिम्बडी में चातुर्मास किया और बाद में उन्हें वहीं स्थिरवास करना पड़ा।
लिम्बडी में उनसे मिलने के लिए चारों ओर से अनेक संत, सतियाँ पधारते। एक बार अहमदाबाद से शत्रुजय की यात्रा के लिए बड़ा संघ निकला, वह भी लिम्बडी हो कर निकला था। उस संघ में आये कितने ही यतिजन अजरामर स्वामी से मिलने के लिए आये और उनके साथ संस्कृत भाषा में शास्त्रार्थ चर्चा करते समय वे बहुत ही प्रभावित हुए थे।
वि० सं०१८६८ के चार्तुमास में अजरामर स्वामी की प्रेरणा से लिम्बडी में बहुत तपश्चर्या हुई, उनमें ३९ जितने तो मासखमण हुए थे । उस तपश्चर्या में मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया था।
सं० १८७० में श्रावण महीने में अजरामर स्वामी का स्वास्थ्य विशेष बिगड़ने लगा। दीक्षा पर्याय के ५० वर्ष और आचार्य पद के २५ वर्ष पूर्ण करने के बाद अपना अंतकाल निकट जान उन्होंने संथारा ले लिया, क्षमापना की और नवकार मंत्र का जाप करते-करते श्रावण वदि १ को रात्रि में १ बजे उन्होंने देह त्याग किया। उनके कालधर्म के समाचार चारों ओर शीघ्रता से फैल गए और श्रावण वदि २ के देह का अग्नि संस्कार के समय हजारों आदमी आ पहँचे।
लगभग ६२ वर्ष के आयु में पूज्य अजरामर जी स्वामी ने बहुत सी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। जैन शासन पर उनका बहुत बड़ा उपकार रहा है। अपने हृदय की विशालता और उदारता के कारण जैनों के सभी संप्रदाय के लोगों और जैनेतर लोगों के हृदय में उन्होंने अनोखा स्थान प्राप्त किया था। इसी से उनके नाम से जगह-जगह भिन्न-भिन्न संस्थाओं की स्थापना हुई है और दो शताब्दी से लोग उनका भावपूर्वक स्मरण करते हैं।