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जोगरत्नसार (योगरत्नसार)
सम्पादिका - श्रीमती (डॉ०) मुन्नी जैन*
भारतीय चिन्तन का मूल केन्द्र आत्मा है इसलिए इस देश की समग्र चिन्तनधारा आत्मा को आधार मानकर गतिशील रही है। जैन चिन्तकों ने आत्मा के विकास मार्ग का अन्वेषण करने में ही अपने जीवन का समर्पण किया है। जैन आगमों में आत्मा को शरीर, इन्द्रिय एवं मन आदि भौतिक पदार्थों से अलग एवं स्वतंत्र माना गया है। राग-द्वेष से कर्मबन्धन होता है और इन्ही विकारों से आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है। इन विकारों के क्षय के लिए भारतीय विचारकों ने अनेक मार्गों की सर्जना की जिनमें 'योग' का सर्वाधिक महत्त्व है। योग एक साधना-पद्धति है और सभी धर्मों में इसका विशेष महत्त्व है। विशेषकर अध्यात्मप्रधान जैनधर्म में तो योग, ध्यान, तप और संयम आदि के बिना तो मुक्ति प्राप्त करना भी सम्भव नहीं है। निर्वाण प्राप्ति हेतु सभी तीर्थंकरों ने इन्हीं का उपदेश दिया है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रतिपादित योग साधना पद्धति के बहुत कुछ सूत्र में हमें उपलब्ध आगमों में मिलते हैं। इन्हीं का आश्रय लेकर जैनाचार्यों द्वारा रचित योगविषयक शताधिक ग्रन्थ उपलब्ध हैं और कितने ही ग्रन्थ अभी तक अज्ञात रूप में शास्त्र भंडारों में संपादन एवं प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं।
यद्यपि योग जैसी महत्त्वपूर्ण साधना पद्धतियों को धर्म या सम्प्रदाय विशेष से बांधना उनके प्रति अन्याय ही कहलायेगा, किन्तु जिस धर्म विशेष में आध्यात्मिक विकास हेतु जिस प्रकार की साधना का मार्ग प्रतिपादित किया जाता है, उस साधना पद्धति या मार्ग को हम उस धर्म से सम्बद्ध नाम दे देते हैं।
इसलिए जैनयोग, बौद्धयोग, वैदिक परम्परा का योग आदि रूपों में 'योग' प्रचलित देखा जाता है। इन सबमें अधिकांश विषय समान होते हुए भी सभी की अपनी कुछ भिन्न प्रकार की विशेषतायें भी हैं फिर भी सम्पूर्ण भारतीय योग साधना के द्वार परस्पर इतने खुले रहे कि उदारतापूर्वक सभी परम्पराओं ने एक दूसरे की साधना पद्धतियों की अच्छी बातों को ग्रहण करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं रखा। इसलिए सभी धर्मों में इन योग पद्धतियों का पर्याप्त विकास हुआ और साहित्य सृजन भी विपुल मात्रा में हुआ।
हमारे देश को प्रारम्भ से ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आध्यात्मिक गुरु के रूप *अनेकान्त भवनम्, बी-२३/४५-पी-६, शारदानगर कालोनी, नबावगंज मार्ग, वाराणसी- २२१०१०