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श्री अजरामर स्वामी जैनेतर धर्मों के बीच भी विशाल और उदार दृष्टि व्याप्त हो गई थी। अजरामर स्वामी का व्यक्तित्व ऐसा पवित्र और उदार था कि उनकी उपस्थिति में साम्प्रदायिक संकुचितता की बात टिक भी नहीं सकती थी।
तरुण अजरामर स्वामी गहन शास्त्राभ्यास करके जब लिम्बडी पधारे थे तब वहाँ के लोगों ने उनके प्रति बहुत आदर भाव दिखाया था, किन्तु अजरामर स्वामी ने कहा कि अभी मैं ज्ञान में अधूरा हूँ और मेरी इच्छा है कि मालवा में विचरते श्री दौलतरामजी महाराज के पास जाकर आगम शास्त्रों का अभ्यास करूं इसके लिए या तो वे काठियावाड़ पधारें या स्वयं उनके पास जाकर अध्ययन किया जाय। संघ ने विचार किया कि यदि दौलतराम जी महाराज स्वयं यहां पधारें तो लोगों को भी लाभ मिले, अत: इसके लिए खास व्यक्ति को भेजकर सारी परिस्थिति समझा कर विनती की गई जिसे श्री दौलतराम जी महाराज ने स्वीकार किया और अपने शिष्य समुदाय के साथ अहमदाबाद होकर लिम्बडी पधारे। वे दो वर्ष झालावाड़ में विचरे। अजरामर जी स्वामी ने उनके पास आगम शास्त्रों का गहन अभ्यास किया। वे जब लौटे तब अजरामर स्वामी ने उन्हें अपने ग्रंथ संग्रह में से कितने ही उत्तम मूल्यवान ग्रंथ भेंट किये।
अजरामर स्वामी शास्त्रज्ञाता और शासन का भार वहन कर सकने योग्य हो गये यह ज्ञात कर संघ ने वि० सं० १८४५ में लिम्बडी में विशाल समारोह का आयोजन कर उन्हें ३५ वर्ष की तरुणावस्था में आचार्य पद पर स्थापित किया। उस समय सम्प्रदाय में जो कुछ शिथिलता थी उसे दूर करने के लिए इन्होंने जबरदस्त पुरुषार्थ किया था। उनके व्यक्तिव में सरलता, नम्रता, वात्सल्य, मधुरता, उदारता, गंभीरता आदि गुण इतने विकसित हो गये थे कि जैन-जैनेतर लोग भी उन्हें चाहने लगे।
अजरामर जी की उच्च साधना थी। उनमें आत्मबल भी पर्याप्त था। ऐसी विभूतियों के जीवन में कितने ही चमत्कारिक प्रसंगों का बन जाना स्वाभाविक है। कहा जाता है कि एक बार अजरामरजी स्वामी जामनगर से कच्छ जाने के लिए मालिया गांव में पधारे वहां से वे रणपार कर के बागड़ की ओर जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें लटेरों का दल मिला। अजरामर स्वामी ने उन्हें कहा हम सब साधु हैं और हमारे पास कोई दौलत नहीं हैं तो भी लुटेरे न माने और उन्हें शरीर पर एक वस्त्र रखकर बाकी सारे कपड़े, पातरे, पुस्तकें आदि सौंप देने की क्रूर आज्ञा दी। लुटेरे लोग किसी प्रकार भी मानने को तैयार न थे। उस समय परिस्थिति देखकर अजरामर स्वामी ने मंत्रोच्चार किया जिससे सभी लुटेरे स्तंभित और अंधे हो घबड़ा कर माफी मांगने लगे तब फिर कभी लूटपाट न करने की प्रतिज्ञा दिला कर छोड़ा फिर वे उनके के भक्त बन गये।
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