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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ यति श्री गुलाबचंद जी भी भरुच से सूरत वापस आ रहे थे। उन्होंने बालू पर बड़े-बड़े पांवों के साथ छोटे पदचिन्ह भी देखे। वे समर्थ लक्षण-वेत्ता थे। पदचिन्ह देखते ही उन्हें लगा कि ये किसी तेजस्वी बालक के पदचिन्ह हैं। सामने किनारे पर पहुँचते ही उन्होंने हीराजी स्वामी आदि को वृक्ष के नीचे बैठे देखा तो वन्दन करते हुए पूछा-महाराज!
आप कहां से पधारे हैं? किधर विहार करना है? हीराजी स्वामी ने बतलाया कि हम लिम्बडी से विहार कर सूरत जा रहे हैं। बालमनि को संस्कृत के अभ्यास के साथ दर्शन शास्त्रादि साहित्याभ्यास कराने की भावना है, यह भी कहा। श्रीपूज्य गुलाबचंद जी ने अपना परिचय दिया और चरणचिन्ह और अन्य शारीरिक लक्षणों से बालमनि को बहुत विद्वान् और तेजस्वी बतलाया और कहा कि यदि सूरत में अभ्यास करना हो तो मैं स्वयं विद्याभ्यास कराऊंगा। यह सुनकर हीराजी स्वामी और अन्य साधुओं ने प्रसन्नता अनुभव की।
पूज्यश्री गुलाबचंद जी मूर्तिपूजक संप्रदाय खरतरगच्छ के यति थे। एक स्थानकवासी बालमुनि को अभ्यास कराना था। एक मूर्तिपूजक संप्रदाय के यति अपने स्थानकवासी संप्रदाय के बालमुनि को अभ्यास करावें इससे हीराजी स्वामी और कानजी स्वामी को जरा भी बाधा नहीं थी। दूसरी ओर यति श्री गुलाबचंद जी स्वयं मूर्तिपूजक संप्रदाय के होने पर भी बालमुनि को अभ्यास अवश्य करायेंगें, ऐसा पक्का विश्वास दिलाया। सूरत में जब विद्याभ्यास चाल हआ तो अन्य सम्प्रदाय के साधु को विद्याभ्यास कराने पर समाज ने थोड़ा खलबलाहट मचाया पर कोई असर नहीं पड़ा। गुलाबचंद जी ने बहुत उत्साहपूर्वक बालमुनि को संस्कृत और प्राकृत के अध्ययन के साथ व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, ज्योतिष आदि अनेक विषयों का अध्ययन कराया, फिर सांख्य, वेदान्त आदि षड्दर्शन का भी अभ्यास कराया और न्यायावतार, स्याद्वादरत्नाकर आदि गंभीर और कठिन ग्रंथ भी पढ़ाये। इस प्रकार के अध्ययन में बहुत वर्ष लगते हैं और एक ही स्थानक या उपाश्रय में अधिक चातुर्मास करना उचित नहीं अत: श्री हीराजी स्वामी ने सूरत के विविध पुरों में भिन्न-भिन्न स्थानों में छ: चातुर्मास बिताये। इस प्रकार बालक मुनि श्री अजरामर के विद्याभ्यास हेतु छ: चातुर्मास सूरत में लगातार करने पड़े, किन्तु उन्हें सतत् अभ्यास का बहुत लाभ मिला। श्री पूज्य मंत्र-तंत्र और गुप्त विद्याओं के भी समर्थ ज्ञाता थे। अजरामर स्वामी योग्य पात्र हैं, यह प्रतीत होने पर उन्होंने मंत्र-तंत्र तथा सूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति की गुप्त विद्याएँ भी अजरामर स्वामी को सिखला दी।
__ अजरामर स्वामी के विद्याभ्यास के निमित्त को लेकर सूरत का मूर्तिपूजक समुदाय और स्थानकवासी समुदाय दोनों उदार हृदय से एक दूसरे के अधिक निकट आ गये। इसी कारण अजरामर स्वामी की मात्र जैन सम्प्रदायव्यापी ही नहीं, जैन और