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जैन साहित्य और दर्शन में प्रभाचन्द्र का योगदान
शिवाकान्त बाजपेयी
भारतीय इतिहास निर्धारण में ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य के साथ ही जैन साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भिक जैन साहित्य आगम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य आदि प्राकृतभाषा में लिखे गए मिलते हैं। तदनन्तर छठी-सातवीं शताब्दी ई० से तत्कालीन समय की प्रचलित भाषा संस्कृत में जैन साहित्य के प्रणयन का प्रचलन बढ़ता है। यद्यपि इस समय भी प्राकृत भाषा में जैन साहित्य रचा जाता रहा एवं अपभ्रंश का भी प्रयोग होता रहा।
जैन साहित्य ऐतिहासिक दृष्टि से कितना उपयोगी है? यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु यह प्राय: निर्विवाद है कि भारतीय साहित्य के सृजन एवं संवर्धन में जैन साहित्य एवं साहित्याचार्यों की विशिष्ट भूमिका रही है और जैन साहित्य लेखन का क्रम आज भी सतत् जारी है। जैन साहित्य के उद्भवकाल से ही जैन साहित्यकारों की उत्कृष्ट परम्परा परिलक्षित होती है। पूर्व मध्यकाल को जैन दर्शन की दृष्टि से "मध्याह्नोत्तर" तथा साहित्य की दृष्टि से "उत्कर्ष-काल" मानना चाहिए। इस युग में अनेक साहित्यिक ग्रन्थों की रचना होती है, दार्शनिक मत-मतान्तरों पर चिन्तन-मनन एवं खण्डन-मण्डन का प्रयास होता है।
इस निर्दिष्ट समयावधि में ही वादिराज सूरि जैन दर्शन पर आधारित न्यायविनिश्चय का प्रणयन कर रहे होते हैं। इसी तरह शांति सूरि की जैनवार्तिक, अभयदेव सूरि- सन्मतितर्क टीका, जिनेश्वर सूरि-प्रमाणलक्षण, अनन्तवीर्य-प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्र सूरि-प्रमाणमीमांसा, वादिदेव सूरि-प्रमाणनयतत्त्वालंकार एवं स्याद्वादरत्नाकर, चन्द्रप्रभ सूरि-प्रमेयरत्नकोष, मुनिचन्द्र सूरि-अनेकान्तजयपताकाटिप्पण आदि विवेच्य युग के उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। इनमें भी दिगम्बर आचार्य प्रभाचन्द्र एवं इनकी साहित्यिक रचनाओं का अपना विशिष्ट स्थान दिखाई देता है। समय की दृष्टि से विचार किया जाए तो ये उपलब्ध स्रोतों से परमार शासक भोजराज एवं जयसिंह के समकालीन परिलक्षित होते हैं।
प्रभाचन्द्र ने जैन साहित्य सर्जना एवं अनेकान्तवाद के खण्डन-मण्डन तथा विभिन्न दार्शनिक वादों के चिन्तन-मनन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया किया है। इनके इस प्रकार के कार्य सम्पादन में समकालीन परिस्थितियों, परमार *प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
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