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________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ ने सीता के होने वाले युगलपुत्रों का जन्म-नक्षत्र ब्रह्मा द्वारा 'अभुक्तमूल' नक्षत्र में निर्धारित करवा दिया है। ज्योतिषशास्त्र की मान्यता है कि 'अभुक्तमूल' नक्षत्र में उत्पन्न बालक का बारह वर्ष तक मुखदर्शन कुटुम्ब के सभी लोगों के लिए अनिष्टकारी होता है। स्वयं वशिष्ठ राम और सीता से कहते हैं कि उन बच्चों का लालन-पालन संस्कारादि ऐसे स्थान पर होना चाहिए कि वे सम्बन्धियों की दृष्टि से बचे रहें। (सीताम्युदयम्, प्रथम एवं द्वितीय अंक, पृ० ८,१२)। शायद इसी योजना के आग्रह के चलते उत्पन्न हुए पुत्रद्वय कुश और लव सम्पूर्ण नाटक में अनुपस्थित हैं ताकि सीता भी उन्हें न देख पाये। कथा को इस प्रकार मोड़ दिया गया है कि इसमें कष्ट और असहजता नहीं बल्कि लोकमंगल की भावना प्रतिबिम्बित होती है। नाटक के प्रथम अंक में प्रस्तावना के बाद ब्रह्मलोक में ब्रह्मा और वशिष्ठ के बीच मंत्रणा होती है। वशिष्ठ ब्रह्मा को भृगु द्वारा विष्णु को दिये उस शाप की याद दिलाते हैं जिसे विष्णु द्वारा भुगु की पत्नी की हत्या कर दिये जाने पर दिया गया । इस शाप के प्रभाव से विष्णु को चिरकाल तक पत्नी-वियोग सहना था। राम विष्णु के अवतार हैं। ब्रह्मा इसे लोकहित में दिया शाप बताते हैं जिसके कारण लंका से वापस आकर राज्यभिषेक के पश्चात् सीता पहले वन में रहकर वाल्मीकि को रामकथा लिखने में सहायता करेंगी और असंस्कृत होते जा रहे पातालवासियों के कल्याण के लिए वरुण और पृथ्वी देवी के निर्देशन में वहाँ जाकर रामचरित का प्रचार कर उन्हें सुसंस्कृत पथ पर लगायेंगी। द्वितीय अंक में ब्रह्मा की योजना को वशिष्ठ स्वयं के दर्शनार्थ आश्रम में आये सीता और राम को समझाते हैं। सीता इस योजना को सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। तृतीय अंक में तमसा तट पर अवस्थित वाल्मीकि के आश्रम में राम, सीता के साथ आकर मुनि से सीता की परिस्थिति बताकर उसके आश्रम में निवास की याचना करते हैं। वाल्मीकि इस प्रस्ताव को स्वीकार कर राम को यह रहस्य बताते हैं कि वे और सीता दोनों पृथ्वी की ही सन्तान हैं और सलिलेश्वर नाग सम्राट वरुण ने ही उन दोनों को पातालवासियों में आर्य-जीवन शैली को प्रचारित करने के लिए भारत में रहकर आर्य-जीवन-दर्शन को आत्मसात करने का आदेश दिया है। अब सीता उन्हें रामचरित लिखने में सहायता करेंगी। चतुर्थ अंक में आश्रम में सीता की दिनचर्या का वर्णन है। सीता के आश्रमवास की अवधि पूर्ण हो गयी है और रामायण भी पूर्ण हो चुका है। वह गंगा से यह वर मांगती हैं कि “अब अन्यत्र जहाँ कहीं रहूँ, मुझे मानवता को चारित्रिक दृष्टि से पवित्र बनाने की अपनी प्रवृत्तियों में सफलता प्रदान करें।" (सीताभ्युदयम्, आमुख, पृ० ८)। पंचम अंक में वरुणलोक में सम्राट वरुण पातालवासियों द्वारा अपने पूर्वजों का आदर्श और सनातन संस्कृति भूलकर कामवर्ग में आसक्त होने पर अपनी व्यथा और चिन्ता पृथ्वी को सुनाते हैं। तभी नारद आकर उन्हें सूचित करते हैं कि सीता अपनी महाशक्ति से सभी लोकों को सर्वोदय पथ पर बढ़ा चुकी हैं। ब्रह्मा का यह संदेश वे सुनाने आये हैं। इस पर पृथ्वी सीता के जीवन के दारुण दु:ख और वियोग
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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