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________________ श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९९ गया है। विदेशों में रहने वाले जैन परिवारों में बच्चों को जैन धर्म-दर्शन के बारे में इस पुस्तक से रोचक सामग्री उन्हीं की भाषा में उपलब्ध करा कर लेखक ने उनका महान् उपकार किया है। सर्वश्रेष्ठ कागज पर अनेक इकरंगे चित्रों के साथ मुद्रित इस लघु पुस्तिका का विदेशों में पर्याप्त प्रसार होगा। ऐसे सुन्दर पुस्तक के प्रकाशन के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं। सीताभ्युदयम् - रामजी उपाध्याय, प्रकाशक- भारतीय संस्कृति संस्थानम्, ३५७, महामनापुरी; वाराणसी- २२१००५; प्रथम संस्करण - १९९८, पृष्ठ- १२७, मूल्य ५० रुपये. आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रामायण के प्रणयन और उसमें सीता के निर्दोष चरित्र के बावजूद उसके साथ होनेवाले अन्यायपूर्ण व्यवहार को लेकर पश्चात्वर्ती काव्यधारा में अतिव्यग्रता देखी जा सकती है। रावण वध के पश्चात् लंका में ही सीता की अग्नि परीक्षा के बाद भी मात्र लोकापवाद के आधार पर गर्भवती अवस्था में राम द्वारा त्याग कर वन में बेसहारा छुड़वा देने की घटना को बाद के रामभक्त सुधी कविजन गले से नीचे नहीं उतार पाये और यही कारण है कि बाद की रचनाओं में सीता के प्रति किये गये राम के इस अमानवीय कृत्य को उन्होंने भिन्न-भिन्न कल्पनाओं से आवेष्ठित कर मानवीय रूप देने का प्रयास किया। इसी क्रम में यदि भवभूति अपने 'उत्तररामचरितम्' के अन्त में सीता का राम के साथ पुनर्मिलन कराकर राम से मानों अपने कृत्य का प्रायश्चित्त् करवाते दीखते हैं वहीं जैन कवियों ने अपनी रचनाओं (पउमचरिय-विमलसूरि एवं पउमचरियं स्वयंभू) में सीता त्याग के पश्चात् राम को घोर विलाप और पश्चाताप करते दिखलाया है। रामायण में तो राम द्वारा बार-बार अविश्वास किये जाने और अन्त में भी यह कहे जाने पर कि - "यदि सीता लोक-समुदाय के सम्मुख अपने चरित्र को निष्कलंक प्रमाणित कर दे तो मैं उसे स्वीकार कर सकता हूँ"- सीता राम के प्रति निष्ठा की दुहाई देकर पृथ्वी से शरण मांगती है और तत्काल पृथ्वी से उत्पन्न सिंहासन पर आरूढ़ होकर पाताल को चली जाती है। (वाल्मीकि रामायण, सर्ग ९७, श्लोक १३ - १७)। सोलहवीं शती आते-आते 'तुलसीदास' को यह घटना इतनी अप्रिय लगी कि उन्होंने 'रामचरितमानस' में इसका उल्लेख ही नहीं किया है। राम-सीता के चारित्रविषयक काव्य परम्परा में शान्त रस में संस्कृत भाषा और साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० रामजी उपाध्याय लिखित अधुनातम काव्य 'सीताभ्युदयम्' नाटक है। इसमें प्रणेता ने सीता परित्याग प्रकरण को अपनी कल्पना से एक नया मोड़ देकर उसका लोकचरित्र-निर्माण की दिशा में उपयोग किया है। अपनी कल्पना के अन्तर्गत नाटककार ने वक्रोक्ति मार्ग अपनाकर सीता - त्याग की घटना को सीता की सहमति से ही एक योजनानुसार स्वयं राम द्वारा सीता के वनवास की व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया है। इस वनवास को नैतिक आधार देने के लिए कवि १४४
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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