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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ से द:खी होकर नारद पर व्यंग्यवाणों का बौछार करती है तथा यह पछती है कि ब्रह्मा उसकी पुत्री उसे कब वापस कर रहे हैं। नारद सांत्वना देकर चले जाते हैं। इसके पश्चात् प्रवेशक में वैखानस वाल्मीकि, सीता और राम के अभिनंदनार्थ आये अतिथियों के स्वागत-व्यवस्था की सूचना देता है। सीता अब जाने वाली है इसकी चर्चा भी है। षष्ट अंक में मातृभूमि की वंदना के पश्चात् वरुण राम से सीता को पाताल लोक जाने देने का निवेदन करते हैं जिसे राम लोक हित में स्वीकार कर लेते हैं और वाल्मीकि विद्यापीठ का रसातल में स्थानान्तरण होता है। नाटककार ने आरम्भ में विस्तृत 'आमुख' लिखकर विषय को स्पष्ट करते हुए विभिन्न ग्रन्थों का संदर्भ देकर वृहत्तर भारत में सम्मिलित लंका और बंगाल की खाड़ी के हिन्द-प्रशान्त महासागर में अवस्थित द्वीपों को पाताललोक सिद्ध किया है। विदित है कि इस क्षेत्र के द्वीप-देशों में भारतीय साम्राज्य इतिहास में विद्यमान रहे हैं जिन्हें वृहत्तर भारत के नाम से जाना जाता है। भारतीय संस्कृति का विस्तार इन देशों में जो हुआ, वह अभी तक विद्यमान है, यहाँ बड़ी संख्या में भारतीय देवी-देवताओं के मंदिर हैं तथा पुराण कथाएं लोक-प्रचारित हैं। कंबोडिया का विश्वप्रसिद्ध अंकोरवाट मंदिर इसी श्रृंखला में है। बोर्नियो का सम्बन्ध वरुण के राज्य से जोड़ा जाता है। "तो सनिये! भारत के दक्षिणपूर्व दिशा में सीमान्त-प्रदेश के महासागर में बहुतेरे द्वीप हैं जिनके सम्राट राजराजेश्वर वरुण हैं। वरुण नागलोक के सम्राट हैं।" (सीताभ्युदयम्, तृतीय अंक, पृ० १६)
नाटक के पंचम अंक में पुत्री सीता के दु:ख के लिए माता पृथ्वी की चिन्ता तो समझ में आती है, पर सीता के अपने पतिगृह से वापस बुलाने की पृथ्वी की व्याकुलता समझ में नहीं आती। भारतीय संस्कृति की यह धारणा है कि कन्या पिता कुल में पति की धरोहर है, तथा उसका सर्वमंगल पति के साथ रहने में ही है। (अभिज्ञानशाकुन्तलम् ४-२२) कालिदास के 'कण्व' जहाँ शकुन्तला को विपत्ति की आशंका के बावजूद पति के साथ उसके रहने में ही उसका मंगल मानते हैं वहाँ पृथ्वी का सीता के वापस आने में हो रही देर के कारण नारद पर उत्तेजित होना अटपटा सा लगता है। नाटक में यद्यपि निम्न श्रेणी के पात्रों का अभाव है फिर भी स्त्री पात्र और वैखानस मौजूद हैं। नाट्यशास्त्र के अनुसार स्त्री पात्रों की भाषा प्राकृत होनी चाहिए, वहाँ प्रस्तुत नाटक में पृथ्वी, सीता और सीता की सहायक सखियों की भाषा संस्कृत रखना नाट्यशास्त्र के अनुरूप नहीं है। भवभूति के नाटक उत्तररामचरित में भी सीता शौरसेनी प्राकृत में ही बात करती हैं। सीताभ्युदयम् में प्राकृत का अभाव खटकता है। उत्तररामचरितम् की तरह ही इसमें भी विदूषक की अनुपस्थिति नाटक की गम्भीरता को व्यक्त करता है।
-अतुल कुमार प्र०सिंह
शोध-छात्र जैन-बौद्ध दर्शन विभाग का०हि०वि०वि०, वाराणसी