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________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ पर उन्हें मुम्बई विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त हुई थी। ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में प्राचीन एवं मध्यकालीन जैन साहित्य का संक्षिप्त विवेचन है। द्वितीय अध्याय में भगवान् महावीर की परम्परा, अंचलगच्छ की पट्टावली तथा इस गच्छ के साहित्य पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय में २६ पृष्ठों में रचनाकार के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय में उनके द्वारा रचित उपदेशचिन्तामणि, पाचवें अध्याय में, प्रबोधचिन्तामणि, छठे में धम्मिलचरित, ७ वें में जैन कुमार संभव, ८ वें में त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध (मूल-पाठ), उसकी समालोचना और कथावस्तु, ९वें अध्याय में नेमिनाथफागकाव्य का विवेचन है। १०वें और ११ वें अध्याय में उनके द्वारा रचित अन्य कृतियों का विवेचन किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट तथा संदर्भग्रन्थ सूची भी दी गयी है, जिससे इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। डॉ० रमणलाल सी० शाह के मार्गदर्शन में लिखा गया यह विशाल शोधप्रबन्ध साध्वी जी के द्वारा किये गये अथक परिश्रम का प्रतिफल है। यह ग्रन्थ जैन धर्म-दर्शन और साहित्य के शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। लगभग एक हजार पृष्ठों के ग्रन्थ का मूल्य मात्र सौ रूपया रखना प्रकाशक की उदारता का परिचायक है। ऐसे प्रामाणिक और उपयोगी ग्रन्थ प्रणयन और उसके प्रकाशन के लिये लेखिका और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय हैं। आनन्दघन चौबीसी (विवेचन), विवेचकार - श्रीपन्नालाल वनेचंद भंडारी; प्रकाशक - श्रीमनोहर पन्नालाल भंडारी, १७२/१७; विसनजी नगर; जलगांव २२०४०७; पृष्ठ ८+३१८; मूल्य - ७५/- रूपये मात्र. __ महान् आध्यात्मिक संत योगिराज श्री आनन्दघन जी १७वीं शताब्दी की महान विभूति थे। उनके जन्म स्थान, माता-पिता आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसी प्रकार वे खरतरगच्छ में दीक्षित हुए थे अथवा तपागच्छ में, इस सम्बन्ध में भी ठीकठीक कुछ भी कह पाना कठिन है। इनके द्वारा रची गयी विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं जिनमें आनंदघन बहोत्तरी और आनन्दधन चौबीसी प्रमुख हैं। बहोत्तरी में इन्होंने, कबीर, मीरा, सूरदास, तुलसीदास, रविदास आदि सन्त कवियों की भांति मुक्तक पदों की रचना की है। इसके सभी पद गेय हैं और ये सभी राग-रागनियों के अन्तर्गत ही रचित हैं। ये पद भक्तिपरक, शृंगार एवं विरह-मिलन सम्बन्धी, अध्यात्म दर्शन, योग और उपदेशात्मक हैं। एक स्थान पर वे कहते हैं - "ना हम पुरुष, ना हम नारी, वरनन भांति हमारी । जाति न पांति, न साधु न साधक, ना हम लघु ना भारी॥" चौबीसी के अन्तर्गत भी उन्होंने उक्त विषयों का ही प्रमुखता से वर्णन किया है। वस्तुत: उनके द्वारा रचित यह चौबीसी न केवल जैन बल्कि भारतीय भक्ति साहित्य की अमूल्य निधि है। श्रावकरत्न श्री पन्नालाल जी भंडारी ने प्रस्तुत पुस्तक में प्रत्येक स्तवनों
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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