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श्रमण / जनवरी-मार्च १९९९ प्रमाण के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों के मन्तव्यों की समालोचना प्रस्तुत की गयी है। आंग्ल भाषा में लिखित यह पुस्तक भारतीय दर्शन के अभ्यासियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रणयन और उसके सुरुचिपूर्ण ढंग से निर्दोष मुद्रण के लिए लेखक, मुद्रक और प्रकाशक सभी बधाई के पात्र हैं।
Jaina Philosophy and Religion (मुनि श्री न्यायविजय जी द्वारा प्रणीत जैन दर्शन का अंग्रेजी अनुवाद), अनुवादक - प्रो० नगीन जी० शाह; प्रकाशकमोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रा० लि०; भोगीलाल लहेरचन्द इस्टिट्यूट ऑफ इण्डोलाजी और महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी फाउंडेशन, दिल्ली; आकार-रायल अठपेजी; पृष्ठ २५+४६९; प्रथम अंग्रेजी संस्करण १९९८ ई०; मूल्य ४५०/- रूपये
मात्र।
मुनि न्यायविजय जी भारतीय दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् थे। उनके द्वारा लिखी गयी विभिन्न महत्त्वपूर्ण कृतियों में जैन दर्शन सर्वाधिक लोकप्रिय है । इस ग्रन्थ में उन्होंने जैन धर्म-दर्शन के सभी पक्षों पर सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से सविस्तार प्रकाश डाला है। वस्तुतः यह ग्रन्थ मुनिश्री की असाधारण विद्वत्ता का परिचायक है और उनके द्वारा विश्व को दिया गया एक अमूल्य रत्न है। अब तक इस ग्रन्थ के गुजराती भाषा में १२ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं जो इसकी लोकप्रियता और इसके व्यापक प्रचार-प्रसार का ज्वलन्त उदाहरण " है। संस्कृत साहित्य और भारतीय दर्शन के विश्वविख्यात् विद्वान् प्रो० नगीन जी० शाह द्वारा किया गया इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद वस्तुतः मणि-कांचन संयोग है और अब निश्चय ही इस प्रामाणिक ग्रन्थ का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार होगा । इस ग्रन्थ की महत्ता के बारे में कुछ कहना वस्तुतः सूर्य को दीपक दिखलाने के समान है। ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है। ऐसे प्रामाणिक और लोकप्रिय ग्रन्थ के अनुवाद और प्रकाशन के लिए अनुवादक और प्रकाशक संस्था दोनों ही वंदनीय हैं।
महाकवि जयशेखर सूरि, भाग १ - २, लेखिका - साध्वी मोक्षगुणा श्री जी० म० सा०; प्रकाशक - आर्य जयकल्याण केन्द्र, मेघरत्न अपार्टमेन्ट, पहला माला, गुणसागरसूरि मेघ संस्कृति भवन देरासर लेन; घाटकोपर (पूर्व) मुम्बई ४०००७७; प्रथम संस्करण १९९१; पृष्ठ २०+४९२, भाग २, पृष्ठ २० + ४९४; मूल्य- प्रत्येक भाग ५० रूपये.
खरतरगच्छ और तपागच्छ की भांति अंचलगच्छ भी एक जीवन्त गच्छ है । इस गच्छ में अनेक प्रभावशाली एवं विद्वान् रचनाकार मुनि हुए हैं, जिनमें विक्रम सम्वत् की १५वीं शती में हुए आचार्य जयशेखर सूरि का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। प्रस्तुत पुस्तक साध्वी मोक्षगुणा श्री द्वारा लिखे गये शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है जिस
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