SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्य सत्कार भारतीय तत्त्वज्ञान : केटलीक समस्या (गुजराती) लेखक - डॉ० नगीन जी० शाह; संस्कृति संस्कृत ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ५; प्रकाशक - डॉ० जागृति दिलीप सेठ, बी-१४; देवदर्शन फ्लैट; नेहरूनगर, चार रास्ता; अंबावाडी, अहमदाबाद ३८००१५, प्रथम संस्करण १९९८ ई०, आकार-डिमाई; पृष्ठ ८+१८४; मूल्य ९९ रूपये मात्र. डॉ० नगीन जी० शाह भारतीय धर्मदर्शन के शीर्षस्थ विद्वानों में एक हैं। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में उनके योगदान से विद्वजगत भली भांति सुपरिचित है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने सत्-असत्, भारतीय दर्शनों में मोक्ष विचार, कर्म और पुनर्जन्म, भारतीय दर्शनों में ईश्वर की अवधारणा, ज्ञानविषयक समस्याओं का सामान्य परिचय आदि महत्त्वपूर्ण दार्शनिक विषयों पर गम्भीर चर्चा की है। उक्त विषयों पर प्रारम्भ से ही भारतीय दर्शनों में मतभेद रहा है। दर्शन ऐसे गूढ़ विषय से सम्बन्धित समस्याओं को सरल एवं संक्षिप्त भाषा में प्रस्तुत कर उन्होंने सराहनीय कार्य किया है। पुस्तक का सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण त्रुटिरहित एवं सुन्दर है। भारतीय दर्शन के शोधार्थियों और गंभीर अध्येताओं दोनों के लिए यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी है। . Essays In Indian Philosophy - लेखक - डॉ० नगीन जी० शाह०; संस्कृति संस्कृत ग्रन्थमाला; ग्रन्थांक ६; प्रकाशक - पूर्वोक्त; प्रथम संस्करण १९९८ ई०; आकार-डिमाई, पृष्ठ ८+१५२; मूल्य- १२०/- रूपये मात्र. प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक द्वारा भारतीय दर्शन से सम्बन्धित समस्याओं पर आंग्ल भाषा में लिखे गये ९ लेखों का संकलन है। प्रथम लेख में काल की प्रकृति पर भारतीय एवं पाश्चात्य विचारकों के मन्तव्यों का विवरण है। इसी क्रम में उन्होंने जैन दर्शन में काल के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं की भी सविस्तार चर्चा करते हुए उनकी समीक्षा प्रस्तुत की है। द्वितीय लेख में जैन परम्परा में आकाश की प्रचलित अवधारणा की व्याख्या की गयी है साथ ही उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ रोचक प्रश्न उठाये हैं और उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। तृतीय लेख के अन्तर्गत उन्होंने बौद्ध परम्परा में प्रचलित 'निर्वाण' की सविस्तार चर्चा करते हुए सदेहमुक्ति और विदेहमुक्ति का भी विवेचन किया है। एक ही शब्द भिन्न-भिन्न दार्शनिक परम्पराओं में भिन्न-भिन्न अर्थों में व्यवहत होने के कारण दार्शनिकों में किस तरह भ्रमपूर्ण स्थिति हो जाती है और वे किस प्रकार का भ्रामक निष्कर्ष निकालने लगते हैं, इस बात का इस लेख में विस्तृत विवेचन है। इसी प्रकार आगे के लेखों में क्रमश: पातंजल योगदर्शन में ईश्वर के स्वरूप की अवधारणा, प्रारम्भिक न्याय-वैशेषिकों में ईश्वर की अवधारणा, ज्ञान-दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दर्शन की समस्यायें, ज्ञान सम्बन्धी धर्मकीर्ति के मन्तव्य तथा भारतीय दर्शनों में व्याप्ति और
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy