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नागपुरीयतपागच्छ का इतिहास पर उक्त दोनों प्रशस्तियों में उल्लेखित वज्रसेनसूरि के एक ही व्यक्ति होने की संभावना व्यक्त की जा सकती है। इस संभावना के आधार पर कर्पूरप्रकर, नेमिनाथचरित्र आदि के रचनाकार हरिषेण और सिरिवालचरिय तथा अन्य कई कृतियों के कर्ता हेमतिलकसूरि परस्पर गुरुभ्राता माने जा सकते हैं।
सारस्वतव्याकरणदीपिका की प्रशस्ति में ऊपर हम देख चुके हैं वज्रसेनसूरि के गुरु का नाम जयशेखरसूरि और प्रगुरु का नाम गुणसमुद्रसूरि तथा उनके गुरु का नाम प्रसन्नचन्द्रसूरि बतलाया गया है जो इस परम्परा के आदिपुरुष पद्मप्रभसूरि के शिष्य थे। छन्दकोश पर रची गयी वृत्ति की प्रशस्ति१७ में रचनाकर चन्द्रकीर्ति ने पद्मप्रभसूरि को दीपकशास्त्र का रचनाकार बतलाया है:
वर्षे: चतुः सप्तति युक्तरुद्र शतै ११७४ रतीतैरथ विक्रमार्कात् । वादीन्द्रमुख्योः गुरु देवसूरिः सूरीश्चतुर्विंशतिमभ्यर्षिचत् ।। तेवां च यो दीपकशास्त्रकर्ता पद्मप्रभः सूरिवरो वभूव । यदिय शाखा प्रथिता क्रमेण ख्याता क्षितौ नागपुरी तषेति ।।
ठीक यही बात विक्रम सम्वत् की १८ वीं शती के अंतिम चरण के आसपास रची गयी नागपुरीयतपागच्छ की पट्टावली१८ में भी कही गयी है, किन्तु वहां मन्थ का नाम भुवनदीपक बतलाया गया है। इसी गच्छ की दूसरी पट्टावली (रचनाकाल-विक्रम सम्वत् बीसवीं शताब्दी का अंतिम चरण) में तो एक कदम और आगे बढ़ कर भुवनदीपक का रचनाकाल (वि० सं० १२२१) का भी उल्लेख कर दिया गया है।
किन्ही पद्मप्रभसूरि नामक मुनि द्वारा रचित भुवनदीपक अपरनाम ग्रहभावप्रकाश नामक ज्योतिष शास्त्र की एक कृति मिलती है, परन्तु उसकी प्रशस्ति में न तो रचनाकर ने अपने गुरु, गच्छ आदि का नाम दिया है और न ही इसका रचनाकर ही बतलाया है, फिर भी नागपुरीयतपागच्छीय साक्ष्यों-छन्दकोशवृत्ति की प्रशस्ति तथा इस गच्छ की पट्टावली के विवरण को प्रामणिक मानते हुए विद्वानों ने इन्हें वादिदेवसूरि के शिष्य पद्मप्रभसूरि से अभिन्न माना है। नागपुरीयतपागच्छीय पट्टावली (रचनाकाल २० वीं शताब्दी का अंतिम भाग) में उल्लिखित भुवनदीपक के जहां तक रचनाकाल का प्रश्न है, चूंकि इस सम्बन्ध में किन्ही भी अन्य साक्ष्यों से कोई सूचना नहीं मिलती, दूसरे अर्वाचीन होने से इसमें अनेक भ्रामक और परस्पर विरोधी सूचनायें संकलित हो गयी हैं अत: इसकी प्रामणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। पद्मप्रभसूरि की परम्परा में हुए हरिषेण एवं रत्नशेखरसूरि द्वारा अपने गच्छ का उल्लेख न करना तथा इसी परम्परा में बाद में हुए चन्द्रकीर्तिसरि, मानकीर्ति, अमरकीर्ति आदि झारा स्वयं को नागपुरीय तपागच्छीय और अपनी परम्परा को बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि