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श्रमण/जनवरी-मार्च / १९९९
रत्नशेखरसूरि और प्रगुरु का नाम हेमतिलकसूरि दिया गया है। रत्नशेखरसूरि द्वारा रचित सिरिवालचरिय (श्रीपालचरित्र) रचनाकाल वि० सं० १४२८ / ई० स० १३७२; लघुक्षेत्रसमास स्वोपज्ञवृत्ति, गुरुगुणद्वात्रिंशिका, छंदकोश, सम्बोधसत्तरीसटीक, लघुक्षेत्रसमाससटीक आदि विभिन्न कृतियां प्राप्त होती हैं। सिरिवालचरिय की प्रशस्ति में उन्होंने अपने गुरु, प्रगुरु, शिष्य तथा रचनाकाल आदि का निर्देश किया है, जो इस प्रकार है: सिरिवज्जसेणगणहर - पट्टप्पह हेमतिलयसूरीणं ।
सीसेहिं रयणसेहर, -सूरीहिं इमा हु संकलिया ॥ १३४० ।। तस्सीसहेमचंदेण, साहुणा विक्कमस्सवरसंमि । चउदसअट्ठावीसे, लिहिया गुरुभत्तिकलिएणं ॥ १३४१ ॥
वज्रसेनसूरि
हेमतिलकसूरि
रत्नशेखरसूरि
हेमचन्द्र
यह उल्लेखनीय है कि रत्नशेखरसूरि ने उक्त प्रशस्ति में अपने गच्छ का निर्देश नहीं किया है। यही बात उनके द्वारा रचित अन्य कृतियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। वि० सं० १४२२ के एक प्रतिमालेख में तपागच्छीय ? किन्हीं रत्नशेखरसूरि का प्रतिमा प्रतिष्ठा हेतु उपदेशक के रूप में नाम मिलता है। यदि हम इस वाचना को सही मानें तो उक्त प्रतिमालेख में उल्लिखित रत्नशेखरसूरि को समसामयिकता और नाम साम्य के आधार पर उक्त प्रसिद्ध रचनाकार रत्नशेखरसूरि से समीकृत किया जा सकता है। एक रचनाकार द्वारा अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में अपने गुरु, प्रगुरु, शिष्य तथा रचनाकाल का उल्लेख करना जितना महत्त्वपूर्ण है, वहीं उनके द्वारा अपने गच्छ का निर्देश न करना उतना ही आश्चर्यजनक भी है। कर्पूरप्रकर नामक कृति की प्रशस्ति में रचनाकर हरिषेण ने स्वयं को वज्रसेन का शिष्य और नेमिनाथचरित्र का कर्ता बतलाया है, किन्तु इन्होंने न तो कृति के रचनाकाल का कोई निर्देश किया है और न ही अपने गच्छ आदि का । ऊपर सिरिवालचरिय ( रचनाकाल वि० सं० १४२८ / ई०स० १३७२) प्रशस्ति में मतिलकसूरि के गुरु का नाम वज्रसेनसूरि आ चुका है, अतः नामसाम्य के आधार
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