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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ जैनाचार्य की उपाधि प्रदान की गयी। वि० सं० १९७८ में ग्वालियर के निकट शिवपुरी में इनका निधन हुआ।
विजयधर्म सूरि के शिष्य मुनिराज विद्याविजय जी द्वारा सम्पादित प्राचीनलेखसंग्रह, सूरीश्वर अने सम्राट, ऐतिहासिकराससंग्रह (भाग ४) और ऐतिहासिकसज्झायमाला नामक ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक हैं।
शान्तिमूर्ति मुनिराज जयन्तविजय जी ने विभिन्न तीर्थों पर प्रामाणिक ग्रन्थों की रचना की है। उनके द्वारा लिखित और सम्पादित विभिन्न कृतियां मिलती हैं। आबू और उसके आस-पास स्थित विभिन्न जैन तीर्थों का उन्होंने विस्तृत इतिहास लिखा है जो ५ भागों में प्रकाशित है। इनका विवरण इस प्रकार है: १. आबू २. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह ३. अचलगढ़ ४. अर्बुदाचलप्रदक्षिणा ५. अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह
इनके आज्ञानुवर्ती विशालविजय जी द्वारा संपादित राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, कुम्भारिया अपरनाम आरासणातीर्थ आदि विशेष प्रसिद्ध हैं।
श्वे० जैनधर्म के विभिन्न गच्छों, ज्ञातियों तथा तीर्थों के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से उक्त सभी कृतियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक हैं।
बुद्धिविजय जी के दूसरे शिष्य विजयनेमि सूरि की परम्परा के मुनिजनों का नेतृत्व आज आचार्य विजयदेवसूरि जी कर रहे हैं जिनकी निश्रा में विचरण कर रहे साधु-साध्वियों की कुल संख्या ६०१ है। द्रष्टव्यः तालिका क्रमांक-२
बुद्धिविजय जी के तीसरे प्रसिद्ध शिष्य आत्माराम जी अपरनाम विजयानन्द सूरि जी हुए। १९वीं -२०वीं शताब्दी में जैन धर्म के उन्नायकों में इनका स्थान सर्वोपरि है। १९वीं शताब्दी के मध्य में जहाँ पंजाब प्रान्त में मूर्तिपूजक जैन समाज का कोई नाम भी लेने वाला न बचा था, वहीं उन्होंने अपने उद्योग से अनेक स्थानों पर जिनालयों का निर्माण कराया और वहाँ मूर्तिपूजक समुदाय का प्रभुत्व स्थापित कराया। इनके द्वारा अनेक विद्यालयों का भी स्थान-स्थान पर निर्माण कराया जाना इनके शिक्षा-प्रेम को प्रकट करता है। इनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ प्राप्त होती है। शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में इन्होंने ही श्री वीरचन्द राघव जी गांधी को भेजा था। इनके विशाल शिष्य परिवार के एक मुनि कांतिविजय जी के शिष्य चतुरविजय जी तथा प्रशिष्य आगमप्रभाकर मुनिराज पुण्यविजय