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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
अगुप्ति-भय अनावृत हो जाने का भय है। चारों ओर से खुला प्रदेश इस प्रकार का भय उत्पन्न कर सकता है।
मृत्यु-भय जैसा नाम से ही स्पष्ट है, अपनी ही संभावित मृत्यु के सतत् चिंतन से होने वाला भय है।
वेदना-भय शरीर में वात पित्तादि के प्रकोप से आने वाली बाधा से उत्पन्न वेदना है। मोह के कारण विपत्ति के पहले ही करुण-क्रंदन वेदना-भय है। मैं निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी पीड़ी न हो- इस प्रकार की मूर्छा-अथवा, बार-बार चिंतन-करना वेदना-भय है।
आकस्मिक-भय वे नैमित्तिक या क्षेत्रीय भय हैं जो परिवेश संबंधी किसी भी परिवर्तन से उत्पन्न होते हैं, जैसे, अभी तो मैं निरोगी हूँ किन्तु कोई यदि महामारी फैल गई तो क्या होगा?
उपर्युक्त सभी प्रकार के भय यों तो सामान्यत: साधारण व्यक्तियों को कभी न कभी सताते ही हैं, किन्तु यदि वे अप्रकृत होकर असामान्य भीतियों (फोबिया) बन जावें तो स्पष्ट ही ये सभी तनाव का रूप ले लेते हैं और इनके नाम-जैसे “मृत्यु-भय' तनाव का वर्णन हो जाते हैं।
आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान ने भी अनेक प्रकार की भीतियों की पहचान की है।१३ ये सभी भौतियाँ विभिन्न प्रकार के तनावों का वस्तुत: वर्णन ही हैं। तनाव आखिर अनुभूति के स्तर पर एक 'व्यग्रता', 'उद्वेग' या 'आतुरता' ही तो है। जब हम इस उद्वेग को पहचान जाते हैं तो यही 'परिताप', 'दुःख', 'क्लेश' और 'भय' के नाम से जाना जाता है।
संदर्भ और टिप्पणियाँ
१.
३.
पातंजल योगसूत्र, २.३ डी० एम०- पेस्टनजी-स्ट्रेस एण्ड कोपिंग, सेज प्रकाशन, नई दिल्ली १९९२, पृ० १५. पातंजलयोगसूत्र, २.४ टिम न्यूटन, 'मैनेजिंग स्ट्रेस', सेज प्रकाशन, लंदन १९९५. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भारतीय ज्ञानपीठ, १९९२, (भाग-२) पेस्टन जी, उपर्युक्त, पृ० १५-१६. न्यूटन, पूर्वोक्त, पृ० ९२२.
६.
पेस्टन
७.