________________
श्रमण : अतीत के झरोखे में में अध्यात्म प्रकाश व्याख्या की रचना की है जिनका संशोधन आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरीश्वर जी महाराज एवं श्री जयसुन्दरविजय जी गणि ने किया है। प्रस्तुत पुस्तक न केवल अध्यात्म प्रेमीजनों बल्कि शोधार्थियों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक तथा मुद्रण दोषरहित है। यह पुस्तक प्रत्येक पुस्तकालय के लिए संग्रहणीय है।
निर्ग्रन्थ परम्परा में चैतन्य आराधना : आचार्यश्री नानेश; प्रकाशकश्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समताभवन, बीकानेर; प्रथम संस्करण १९९७ ई०; आकार-डिमाई; पृष्ठ ८+८७; मूल्य-१० रूपया।
बाह्याडम्बरों से दिग्भ्रान्त अशान्तचित्त मानव को अपना ध्यान चैतन्य की ओर लगाने से ही सच्ची शांति प्राप्त हो सकती है। मानव अपने चारों ओर स्वनिर्मित परिग्रहरूपी जाल में स्वयं फंस जाता है और प्रयास करने पर भी उससे छूट नहीं पाता। यदि मानव आज भी महावीर के उपदेशों पर चले, तो उसकी अनेक समस्यायें स्वत: हल हो जायेंगी। प्रस्तुत पुस्तक समताविभूति आचार्य नानेश के प्रवचनों का संग्रह है। इसमें उन्होंने अत्यन्त सरल किन्तु सारगर्भित भाषा में अपने विचार व्यक्त किये हैं जो न केवल जैन समाज बल्कि सभी मनुष्यों के लिए प्रेरणादायी है।
प्रवचनपर्व : प्रवचनकार - आचार्यश्री विद्यासागर जी; प्रकाशक - मुनिसंघ साहित्य प्रकाशन समिति, कटरा बाजार, सागर, मध्यप्रदेश; प्रथम संस्करण १९९३, पृष्ठ १४४, आकार-डिमाई, मूल्य -१० रूपया।
प्रस्तुत पुस्तक में सन्त शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा पर्युषणपर्व पर दिये गये प्रवचनों का संकलन है। शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को अत्यन्त सरल भाषा में जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत कर उसे बोधगम्य बना देना आचार्यश्री की विशेषता है। इस पुस्तक में उन्होंने पारम्परिक दृष्टान्तों की अपेक्षा मानवजीवन की दैनिक घटनाओं के उदाहरणों से अपने कथन को पुष्ट किया है, जिससे उनका हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। पुस्तक सभी के लिए पठनीय है। इसकी साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण त्रुटिरहित है।
सागरना स्मरण तीर्थे (गुजराती), लेखक - आचार्य मनोहरकीर्ति सागरसूरि तथा डॉ० कुमारपाल देसाई; संपा० - मुनिश्री अजयकीर्तिसागर एवं मुनिश्री विनय कीर्तिसागर; प्रकाशक - श्री अविचल ग्रन्थ प्रकाशन समिति, प्राप्ति स्थान - श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वर जी जैन समाधि मंदिर, स्टेशन रोड, बीजापुर-३८२ ८७०; पृष्ठ १२+३१०.
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छों में तपागच्छ का आज सर्वोपरि स्थान है। इस गच्छ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org