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श्रमण : अतीत के झरोखे में
डॉ० आर० सी० द्विवेदी के निर्देशन में राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से उन्हें पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त हुई है। शोध प्रबन्ध ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में भारतीय योग परम्परा का विस्तृत परिचय दिया गया है जिसके अन्तर्गत सिंधुकालीन सभ्यता में योग; तापस परंपरा, अवधूत परंपरा तप का योग के रूप में विकास, पातंजल योग, राजयोग, हठयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, जैन तथा बौद्ध योग आदि की चर्चा है। द्वितीय अध्याय में ग्रन्थकार एवं ग्रन्थ का परिचय दिया गया है। तृतीय अध्याय में ग्रन्थ के स्वरूप व रचनाशैली पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय योगांगविश्लेषण के रूप में है। इसके अन्तर्गत आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान की पात्रता - अपात्रता, शुद्धोपयोग, बहिरात्मा-अंतरात्मा-परमात्मा, ध्यान के प्रतिकूल स्थान, योग साधना में ध्यान, उपनिषदों में ध्यान संकेत, ध्यान के भेदप्रभेद आदि की १०० पृष्ठों में चर्चा की गयी है। पांचवां और अंतिम अध्याय उपसंहार स्वरूप है। इसके अन्तर्गत योग के क्षेत्र में आचार्य शुभचन्द्र की देन रचनाकार पर पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का प्रभाव तथा उत्तरवर्ती लेखकों पर शुभचन्द्र के प्रभाव की चर्चा है और अन्त में निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है। शोध प्रबन्ध में दो परिशिष्ट भी हैं जिनमें से प्रथम में वर्तमान काल में प्रचलित विभिन्न ध्यान पद्धतियों- विपश्यना, प्रेक्षाध्यान, समीक्षण ध्यान, भावातीत ध्यान तथा रजनीश द्वारा निरूपित ध्यान पद्धतियों आदि की सक्षिप्त चर्चा है। अंतिम परिशिष्ट में संदर्भ ग्रन्थों की सूची दी गयी है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रो० दयानन्द भार्गव द्वारा लिखित आमुख एवं डॉ० छगनलाल शास्त्री का पर्यवलोकन पुस्तक के महत्त्व को द्विगुणित कर देते हैं। एक श्वेताम्बर साध्वी द्वारा एक दिगम्बर आचार्य के ग्रन्थ को अपने शोध प्रबन्ध का आधार बनाना ही अत्यन्त आहलादक है। ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थ के लेखन व प्रकाशन के लिए लेखिका और प्रकाशक संस्था दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं।
अध्यात्म उपनिषद् भाग १-२ : रचनाकार-महोपाध्याय यशोविजय गणि; संस्कृत व गुजराती भाषा में टीकाकार व संपादक मुनि यशोविजय जी; संशोधक आचार्य जगच्चन्द्रसूरीश्वर जी एवं जयसुन्दरविजय जी गणि; प्रकाशक - श्री अन्धेरी गुजराती जैन संघ, करमचंद जैन पौषधशाला, १०६, एस० बी० रोड, इर्लाब्रिज, अंधेरी (पश्चिम) मुम्बई - ५६; प्रकाशन वर्ष - वि० सं० २०५४; प्रथम भाग - पृष्ठ २७+१५३; द्वितीय भाग २१ + १५४ से ३६७; दोनों भागों का मूल्य १९० रूपया; आकार - रायल आठ पेजी ।
श्वेताम्बर परम्परा के श्रेष्ठ रचनाकारों में तपागच्छीय महोपाध्याय यशोविजय जी का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। उनके द्वारा रचित अनेक रचनाओं में अध्यात्मउपनिषद् भी एक है। इस कृति पर वर्तमान युग में तपागच्छ के ही विद्वान् मुनि श्री यशोविजय जी ने संस्कृत भाषा में अध्यात्म वैशारदी टीका और गुर्जर भाषा
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