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श्रमण : अतीत के झरोखे में
प्रस्तुत पुस्तक तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य स्व० श्री विजयलावण्य सूरीश्वर जी महाराज का सरल हिन्दी भाषा में छन्दोबद्ध जीवन चरित्र है जो उनके प्रशिष्य आचार्य विजयसुशील सूरि द्वारा प्रणीत है। मंगलाचरण से प्रारम्भ इस ग्रन्थ में आचार्यश्री के जीवन से सम्बन्धित घटनायें बड़े ही सुन्दर रूप में वर्णित हैं। सौराष्ट्रदर्शन नामक खंड में उक्त प्रान्त के विभिन्न तीर्थों का और अनुपम साहित्यसाधना के अन्तर्गत आचार्यश्री की साहित्यिक कृतियों का सुन्दर विवेचन है । कृति के अन्त में रचनाकार की प्रशस्ति और संदर्भ ग्रन्थसूची भी दी गयी है । ग्रन्थ का मुद्रण अत्यन्त कलात्मक और त्रुटिरहित है।
श्रीलावण्यसूरिमहाकाव्यम् : प्रेणता - आचार्य श्रीमद् विजयसुशील सूरि जी म० प्रकाशक- पूर्वोक्त, प्रकाशन वर्ष - मई १९९७; पृष्ठ १६ + १५२; आकार-रायल आठपेजी; मूल्य-स्वाध्याय।
प्रस्तुत महाकाव्य आचार्यश्री लावण्यसूरि जी महाराज के जीवन पर आधारित एक उत्कृष्ट रचना है। संस्कृत भाषा में रचित इस महाकाव्य में रचनाकार ने शक्य सभी तत्त्वों समावेश किया है और इस प्रकार उन्होंने संस्कृत साहित्य को वर्तमान काल में अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। इस महाकाव्य में मूलगाथा के साथ उसका संस्कृत और हिन्दी भाषा में अनुवाद भी दिया गया है, जिससे सामान्यजन भी इससे लाभान्वित हो सकेगें। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण कलापूर्ण एवं निर्दोष है।
महाराष्ट्र का जैन समाज : लेखक- श्री महावीर सांगलीकर; प्रकाशक जैन फ्रेण्ड्स, २०१, मुम्बई-पुणे मार्ग, चिंचवड़ पूर्व, पुणे ४११०१९; प्रकाशन वर्ष - अक्टूबर १९९८ ई०; आकार-डिमाई, पृष्ठ- ३२; मूल्य १५ रूपया ।
प्रस्तुत लघु पुस्तिका में विद्वान् लेखक द्वारा गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया गया है। यह पुस्तिका ६ अध्यायों में विभक्त है। इन में प्रस्तावना, महाराष्ट्र के जैन समाज और उसके प्रमुख व्यक्ति, स्थानीय जैन संस्थाओं आदि का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। अन्त में परिशिष्ट (एक) के अन्तर्गत महाराष्ट्र की जैन जातियों और परिशिष्ट (दो) में जैन संस्थाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं की सूची दी गयी है। यह पुस्तक वस्तुतः एक ऐतिहासिक दस्तावेज है अतः न केवल शोधार्थियों बल्कि जनसामान्य के भी लिये पठनीय और संग्रहणीय है ।
ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन लेखिका - साध्वी डॉ० दर्शन लता; प्रकाशक श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी संघ, गुलाबपुरा ( राजस्थान); प्रथम संस्करण १९९७ ई; पृष्ठ २०+२५६ आकार - रायल आठपेजी; मूल्य १५० रूपया । प्रस्तुत पुस्तक साध्वी दर्शनलता जी के शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है जिस पर
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