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९६ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
कार्य की सिद्ध कीनी, संजम में प्रीत दीनी, कर्म ही विलाय जू।। अंतर की प्रगह' खोय........जाणय जू२। कहत चिरंजी बाल, चोथि ही सुमति धार
आत्मा को कीनो ज्ञान, शिवपुर जाय जू।।१३।। दोहा- ५. उच्चार प्रस्रवण समिति
सुधर जो भूमि देख के, उच्चारादिक झाल।
पासादिक मुनि जाहा करे, जाहा काया नाह ।।१४।। सवैया- गृहत्याग
तज सब राज पाठ, त्यागे सब गृह बार, नाक मल डारे जू। त्यागे सब रतन हार, हीरा मोती और लाल. दुखदाइ जाणय जू। स्त्री और पुत्र-भ्रात-तात, मात सेती नेह त्याग, प्रभू प्रीत धारे जू। वन ही के माहि जाय, गुरू की जो आज्ञा पाय, मुनि पदवी को धरें, जैसे बांझ पुत्र जू ॥१५॥
सवया
वन में ही वास करे, बिछू सर्प आन लडे, सिंघ गजराज भय, बहोत ही जो भारि है पसु-पंखी जीव-जंतु, सब ही जो वन माहि काल कि समान और, मासादिक हारि है। असो है बिहंग वन, जहां नहीं कछु गम्य तन की मम त्याग, सिद्ध ही सरूप के विचारि है। काओसग ध्यान करे, सुभ कर्म की न चाह धारे अशुभ को नसाय, एक केवल की आस धारी है।।१६।।
१. परिग्रह २. बीच के अक्षर अत्यंत अस्पष्ट होने के कारण पढ़ने में नहीं आये।
४. मल त्याग (पाँचवीं समिति) ६. कायोत्सर्ग
५. मांसाहारी पशु आदिक ७. केवलज्ञान