________________
श्रमण
मुनिराज वन्दना बत्तीसी
डॉ०(श्रीमती) मुन्नी जैन*
.. हिन्दी साहित्य के विकास में जैन आचार्यों एवं श्रावकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। धर्म, अध्यात्म और सदाचार के उदात्त जीवनमूल्यों को जनमानस तक पहुँचाना जैनाचार्यों का प्रमुख उद्देश्य रहा है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने विशाल साहित्य का प्रणयन किया है। यद्यपि जैन साहित्य के प्रकाशन का उल्लेखनीय प्रयास हआ है फिर भी अभी भी भारी मात्रा में जैन साहित्य शास्त्र भण्डारों में अप्रकाशित भरा पड़ा है तथा सम्पादन और प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। इस अमूल्य धरोहर के संरक्षण, संवर्धन
और प्रचार-प्रसार में सहभागी बनना हम सबका पुनीत कर्त्तव्य है। साथ ही इस प्रयास में शीघ्रता की भी आवश्यकता है अन्यथा इस अमूल्य साहित्य के नष्ट हो जाने पर हम सदा-सदा के लिए इससे वञ्चित रह जायेंगे।
जैनाचार्यों द्वारा स्वतन्त्र विषयों को आधार बनाकर छोटी-छोटी रचनाओं की परम्परा अति प्राचीन रही है। पदों की संख्या के आधार पर इस विधा की रचनाओं को प्रतिपाद्य विषय के साथ अष्टक, षोडशक, बीसी, पच्चीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, तथा शतक अर्थात् सौ या इससे अधिक पद-शीर्षक प्रदान किया गया है।
प्रस्तुत बत्तीसी की पाण्डुलिपि पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के पुस्तकालय में सुरक्षित है। 'मनिराज वन्दना बत्तीसी' यह शीर्षक हमने इसकी पद-संख्या और विषयवस्तु के आधार पर इस कृति को प्रदान किया है। वस्तुत: इस पाण्डुलिपि के आरम्भ में 'अथ वैरागशतक लिख्यते' तथा अन्त में 'इति चिरञ्जीलाल कृत सवैया समाप्तं' उल्लिखित है। परन्तु इसमें इसका शतक और सवैया दोनों ही रूपों में उल्लेख भ्रामक है। क्योंकि इसकी रचना मात्र बत्तीस पदों (११ दोहा +१६ सवैया+३ कवित्त +२ सोरठा) में है। इसमें मुनिराज के गुणों और तपश्चर्या की वन्दना की गई है। अत: पद संख्या और प्रतिपाद्य के आधार पर इसका 'मुनिराज वन्दना बत्तीसी' शीर्षक सार्थक प्रतीत होता है।
इसके रचयिता कवि चिरञ्जीलाल ने प्रायः प्रत्येक पद की अन्तिम पंक्ति में अपना नामोल्लेख किया है। इनका समय एवं अन्य परिचय अन्यत्र भी उपलब्ध नहीं हो सका
और न ही इनकी अन्य रचनाओं के होने के विषय में सङ्केत प्राप्त होते हैं, फिर भी प्रस्तुत * अनेकान्त भवनम्, बी२३/४५-पी०-६, शारदानगर कालोनी, नवाबगंज मार्ग, वाराणसी-१०