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कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द इस प्रकार छन्द की दृष्टि से कीर्तिकौमुदी का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इसमें अधिकतम श्लोक अनुष्टुभ् में प्रणीत हैं। संख्या की दृष्टि से अनुष्टुभ् के बाद का प्रिय छन्द रहा है- उपजाति। अनुष्टुभ् छन्द का अधिक प्रयोग इस तथ्य की ओर इङ्गित करता है कि सोमेश्वरदेव ने इसकृति को महाकाव्य का रूप देना चाहा है। महाकाव्य के लक्षण के रूप में प्रदत्त विश्वनाथ के निम्न दो श्लोक प्रासङ्गिक हैंएकवृत्तमयैः पद्यैवसानेऽन्यवृत्तकैः।
नातिस्वल्पा नातिदीर्घा: सर्गा अष्टाधिका इह।।३२०।। नानावृत्तमय: ववापि सर्गः कचन दृश्यते।
सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः: सूचनं भवेत्।।३२१।। उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार महाकाव्य की रचना प्राय: एक वृत्त-छन्द में होती है। सर्ग के अन्त में भिन्न छन्द प्रयुक्त होते हैं। साथ ही कोई सर्ग ऐसा भी होता है जिसमें प्रधान छन्द से भिन्न विविध छन्दों का प्रयोग रहता है ऐसे सर्ग-विशेष में प्रधान छन्द के प्रयोग का अभाव रहता है। इस कसौटी पर कीर्तिकौमुदी के षष्ठ और नवम सर्ग खरे उतरते हैं। इन दोनों सर्गों में अनुष्टुभ् का प्रयोग नहीं हुआ है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सोमेश्वरदेव ने कीर्तिकौमुदी में छन्दों का प्रयोग एक निश्चित योजना के अनुसार किया है और वे सफल रहे हैं। संदर्भ १. सोमेश्वरदेव, कीर्तिकौमुदी, सं० मुनि पुण्यविजयजी, सिंघी जैन ग्रन्थमाला ३२,
भारतीय विद्याभवन, बम्बई १९६१ २. जी०के० भट्ट, आन मीटर्स एण्ड फीगर्स आव स्पीच, महाजन पब्लिशिंग हाउस,
अहमदाबाद १९५३, पृ०-३. ३. कीर्तिकौमुदी, सिंघी, पृ०-३. ४. केदार भट्ट, वृत्तरत्नाकर, सं० नृसिंह देव शास्त्री, मेहरचन्द दास, दिल्ली
१९७१, पृ०-६१. कीर्तिकौमुदी, सिंघी, पृ०-६.
वृत्तरत्नाकर, पृ०-६२. ७. कीर्तिकौमुदी, पृ०-६. ८. वृत्तरत्नाकर, पृ०-१२२. ९. कीर्तिकौमुदी, पृ०-६. १० वृत्तरत्नाकर, पृ०-९६. ११. कीर्तिकौमुदी, पृ०-६. १२. वृत्तरत्नाकर, पृ०-१०६.