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खरतरगच्छ-पिप्पलकशाखा का इतिहास ७१
जिनवर्धनसूरि जिनसिंहसूरि जिनसागरसूरि
शुभशीलगणि जिनसागरसूरि के तीनों शिष्यों मुनिधर्मचन्द्र, जिनसुन्दरसूरि और शुभशीलगणि में से जिनसुन्दरसूरि उनके पट्टधर बने। जिनसुन्दरसूरि के दो शिष्यों जिनहर्षसूरि और जिनहंस के बारे में साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों साक्ष्यों से जानकारी प्राप्त होती है।
___ वि०सं० १५१९ से वि०सं० १५६४ तक के ४३ प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में जिनहर्षसूरि (आचार्य पद वि० सं० १५१७) का नाम मिलता है।१९ इनके द्वारा वि०सं० १५३७/ई०स० १४८१ में रचित आरामशोभाकथा२० नामक एक कृति भी प्राप्त होती है।
वि० सं० १५२३ और वि० सं० १५५१ के प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक विजयचन्द्र और जिनचन्द्र भी जिनहर्षसूरि के ही शिष्य थे। यह बात उक्त प्रतिमालेखों से ज्ञात होती है।
इनमें से वि० सं० १५२३ में प्रतिष्ठापित प्रतिमा शीतलनाथ की है और आज पित्तलहर जिनालय, लूणवसही, आबू में संरक्षित है। मुनि जयन्तविजय२१ जी ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है:
__ सं० १५२३ वर्षे वैशाष (ख) सुदि १३ गुरौ श्रीशीतलनाथबिंबं सा० सुदा भा० श्रा० सुहवदेव्या का० प्र० श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनहर्षसूरिभिः विजयचंद्रेण।।
वि० सं० १५५१ का लेख शांतिनाथ की धातु प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। मुनि कांतिसागर२२ ने इसकी वाचना निम्नानुसार दी है :
____ सं० १५५१ वर्षे वैशाख वदि २ सोमे उकेशवंशे करमदीयागोत्रे म० गणीया भार्या लाली पुत्र मं० सहिजा भा० सहिजलदे पुत्र मं० मणोरादिसहितेन स्वश्रेयसे श्रीशंतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनहरष (हर्ष) सूरिपट्टे श्री जिन प (?भ) द्र सूरिभिः
श्री विनयसागर के अनुसार यहां (जिनचन्द्र) पाठ होना चाहिए न कि जिनभद्र, जैसा कि मुनि कांतिसागर का मत है।