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५० श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
आसन- विपश्यना में आसन का निषेध है, क्योंकि बौद्ध साधना-पद्धति में आसन-सम्मत नहीं है। भगवान् महावीर ने आसनों को बहुत महत्त्व दिया है। स्थानांग -सूत्र में आसनों के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं।३० भगवान् महावीर ने स्वयं अनेक आसनों के प्रयोग किये थे। यहां तक कि उन्हें केवल-ज्ञान भी एक विशिष्ट आसनगौदुहिका में उपलब्ध हुआ था।३१ तपस्या का भी एक प्रकार- काय क्लेश-आसन का प्रयोग है।३२ ध्यान के साथ आसन का होना अत्यन्त जरूरी है, क्योंकि ध्यान से पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है और अग्नि मंद हो जाती है। आसन से स्वास्थ्य भी सुदृढ़ होता है और ध्यान से होने वाली शरीर की हानियों से बचा जा सकता है।३३
प्राणायाम- विपश्यना में प्राणायाम को महत्त्व नहीं दिया गया है। प्रेक्षा में यह प्रयोग किया जाता है। प्राण पर नियंत्रण करने के लिए प्राणायाम आवश्यक है। प्राण पर नियंत्रण किये बिना चंचलता पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। हठयोग में तो प्राणायाम को अलग से महत्त्व दिया गया है, जिसमें प्राणायाम के अनेक प्रकारों को बताया गया है।३४
मौन- विपश्यना में मौन का प्रयोग बड़ी कड़ाई से कराया जाता है। पूरे शिविर काल तक मौन का प्रयोग होता है।३५ प्रेक्षा में मौन पर इतना बल नहीं दिया गया है। उसमें मात्र सुझाव देते हैं कि अनावश्यक बातचीत न करें, आवश्यकता होने पर ही बोलें। मौन तभी पूर्ण होता है जब मन, वाणी और शरीर तीनों से उसका पूर्ण पालन किया जाय।
शरीर प्रेक्षा- विपश्यना और प्रेक्षा दोनों में ही यह प्रयोग कराया जाता है। जिसमें शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया को राग-द्वेष रहित होकर देखने का सुझाव दिया जाता है। पूरे शरीर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर कहीं भी रुके बिना देखते चले जाते हैं। यह प्रयोग दोनों ही पद्धतियों में समान है।३६ .
चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा- विपश्यना में ऐसा कोई प्रयोग नही है। इस प्रयोग में एक केन्द्र पर रुक कर ध्यान किया जाता है। ध्यान का प्रारम्भ चैतन्य केन्द्रों से ही प्रारम्भ होता है। किसी एक केन्द्र पर ध्यान करना धारणा है। जब आधा-एक घंटा तक उसी केन्द्र पर चित्त केन्द्रित बना रहे तो वह ध्यान हो जाता है। ध्यान का प्रारम्भिक अंग ही धारणा है। एक बिन्दु पर धारणा होते-होते जब चित्त उस पर एकाग्र हो जाता है तो वह ध्यान हो जाता है। एक सूत्र भी है- धारणा को बारह से गुणा करने पर वह ध्यान हो जायेगा और ध्यान को बारह से गुणा करने पर वह समाधि हो जाती है।३७
स्वाध्याय और जप- विपश्यना में मंत्र का जप और स्वाध्याय करना निषिद्ध है। प्रेक्षा में इन दोनों को समान महत्त्व दिया गया है, क्योंकि सभी व्यक्तियों की रुचि