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४८ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
प्रेक्षाध्यान- नित्यानित्य का ज्ञान होने पर ही प्रेक्षा होती है। उत्पाद और व्यय को ध्रौव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता है। जो सत् है वह त्रयात्मक है।२० नित्य और अनित्य का ज्ञान ही प्रेक्षाध्यान का आधार है। जैन दर्शन में दु:ख के साथ सुख को भी स्वीकार किया गया है। भगवान् महावीर ने जन्म, मरण, बुढ़ापा और रोग इन चारों दुःखों को स्वीकार करने के साथ ही साथ सुख को भी स्वीकार किया है। पौद्गलिक सुख भी सुख है। साधनाकाल में भी सुख की अनुभूति होती है। जैन दर्शन आत्मवादी है आत्मा को स्वीकार करता है। प्रेक्षा का तो मूल आधार है- आत्मा का ज्ञान,२१ क्योंकि बिना आत्मा का ज्ञान प्राप्त किये प्रेक्षा नहीं हो सकती।
विपश्यना- बौद्ध दर्शन के अनुसार जब अनित्य, दुःख और अनात्म की चेतना प्रकट होती है तब विपश्यना का प्रादुर्भाव होता है। विपश्यना के लिए इन तीनों का होना आवश्यक है- अनित्य का ज्ञान, दु:ख का ज्ञान और अनात्म का ज्ञान। इन तीनों का ज्ञान होने से ही विपश्यना होती है।
अनित्य का ज्ञान- बौद्ध दर्शन का सिद्धांत है- क्षणिकवाद। प्रतिक्षण उत्पाद और व्यय हो रहा है। क्षणभंगुरता का ज्ञान ही अनित्यता का ज्ञान है।
दुःख का ज्ञान- जन्म, बुढ़ापा, रोग और मरण- ये चारों ही दुःख हैं। इस दुःख का ज्ञान ही विपश्यना का आधार है।
अनात्म का ज्ञान- बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है। आत्मा के सन्दर्भ में बौद्ध दर्शन मौन है। अत: अनात्म का ज्ञान हो जाने पर विपश्यना प्रकट होती है। जैन दर्शन में अनित्यवाद, दुःखवाद और अनात्मवाद मान्य नहीं है। इन तीन आधारों से ही प्रेक्षा और विपश्यना के दार्शनिक आधार की भिन्नता स्पष्ट होती है। आध्यात्मिक आधार
प्रेक्षा- प्रेक्षाध्यान-पद्धति कायोत्सर्ग पर आधारित है। प्रेक्षाध्यान का प्रारम्भ कायोत्सर्ग यानी शरीर को त्यागना- से होता है और इसका समापन भी कायोत्सर्ग यानी काया का निरोध, काया का उत्सर्ग से होता है। शरीर और आत्मा एक नहीं हैं, अलगअलग हैं। इस भेद-विज्ञान का स्पष्टीकरण प्रेक्षाध्यान के द्वारा स्पष्ट किया जाता है। जैन दर्शन का दार्शनिक पक्ष और साधना पक्ष आत्मा के आधार पर चलते हैं। पूरा आचार शास्त्र ही आत्मा पर आधारित है।
विपश्यना- विपश्यना पद्धति मन को शांत करने के लिए है, राग-द्वेष कम करने के लिए है, केवल जानने और देखने के लिए है। दूसरे शब्दों में इसे इस प्रकार कह सकते हैं- विपश्यना राग-द्वेष और मोह से विकृत हुए चित्त को निर्मल बनाने की