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________________ ३८ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ देते हैं पठतु शास्त्र समूहमने कथा, जिन समर्थन मर्चनतां सदा। गुरुनतिं कुरुतां धरतांव्रतं। यदिशमो न वृथा सकलं ततः।। -व्रतोद्योतन श्रावकाचार अर्थात् यदि समभाव नहीं है, तो अनेक प्रकार के शास्त्रों को पढ़ना, जिनेन्द्र देव की सदा पूजा करना, गुरुजनों को नमस्कार करना और व्रत धारण करना ये सब व्यर्थ हैं। जिन दिनों लोंकाशाह (जन्म सं० १४७२) मूर्तिपूजा का जबरदस्त विरोध कर स्थानकवासी जैनसम्प्रदाय की नींव डाल रहे थे, जड़-पूजा के स्थान पर चैतन्यपूजा और द्रव्यपूजा के स्थान पर भावपूजा की प्रतिष्ठा कर रहे थे, उन्हीं दिनों कबीर भला इस महा-आन्दोलन की लहर से अछूते कैसे रह सकते थे। उन्होंने भी मूर्तिपूजा का दृढ़ता से विरोध किया और कहा कि विशुद्ध भावों सहित, निष्काम, निर्गुण, निराकार की भावपूजा, सेवा-उपासना से ही आत्मा-परमात्मा की ऐक्यानुभूति हो सकती है। ___ जब कुछ जैनाचार्यों द्वारा द्रव्यपूजा को इतना बढ़ावा दिया गया कि धनिये के पत्ते के बराबर जिन-भवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर जिन-प्रतिमा स्थापन का महान फल बताया गया, २३ तो कबीर ने इस कथन को अपने सांचे में ढालते हुए कहा 'देवल माहैं देहरि, तिल जै है बिसतार। माह पक्षी माहिं जल, मां, पूजणहार।२४ जैनियों को स्पष्ट रूप से सम्बोधित करते हुए कबीर ने कहा"जैन जीव की सुधी न जानैं। पाती तोरि देहुरै आनै। दोना मरवा चंपक फूला। तामैं जीव बसै कर तूला। अरु प्रथमों की रोम उपाएँ, देखत जीव कोटि संघारै।।२५ अर्थात्- जैन,लोग अहिंसा के लिए विख्यात हैं, तथापि आचरण में हिंसक हैं। अपने आपको अहिंसक मानते हुए भी इन जैनों को जीव तत्त्व का ज्ञान नहीं है। इनको जीव हिंसा के समय होश ही नहीं रहता है। ये लोग फूल-पत्तियों को तोड़कर देवालय में लाते हैं। देवालयादि के निर्माण के अवसर पर घास-फूस एवं पौधों आदि
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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