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________________ जैन दर्शन और कबीरः एक तुलनात्मक अध्ययन के रूप में ये पृथ्वी के रोमों को उखाड़ते हैं। इस प्रकार देखते-देखते करोड़ों जीवों का संहार कर देते हैं। ये वास्तविक ज्ञान से प्राप्य अमर पद से विमुख हैं। कबीर का उक्त कथन मूर्तिपूजक जैनियों की दृष्टि से ठीक है। लेकिन जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं- जैनियों में मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदाय भी हैं। मूर्तिपूजा के विरोध में उनके और कबीर के विचार समान ही हैं। अत: कबीर का उक्त कथन सम्पूर्ण जैन-उपासकों पर लागू नहीं होता। पूरे कबीर-वाङ्मय में मूर्तिपूजा-सम्बन्धी उक्त उल्लेख ही कबीर की ओर से जैनियों पर किया गया सीधा प्रहार है। जिससे यह तथ्य स्पष्ट उद्भासित हो जाता है कि कबीर जैन दर्शन की सूक्ष्म अहिंसा से भलीभाँति अभिज्ञ थे और यह अहिंसा उन्हें स्वयं को स्वीकृत भी थी। भला कबीर जैसा सत्यान्वेषी साधक अपने युग के एक प्रमुख दर्शन से अन्जान एवं अप्रभावित रह भी कैसे सकता था? निष्कर्ष यह है कि जैन धर्म का मूल उन प्राचीन परम्पराओं में रहा है, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थी। किन्तु, यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखें तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परम्परा वेदों तक पहँचती है। इस धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर (ई०पू० छठी शताब्दी) हुए, जिन्होंने इसे पूर्ण रूप से सुसंगठित और सक्रिय बनाया। उन्हीं के समय से इस सम्प्रदाय का नाम 'जिन' धर्म को मानने के कारण 'जैन' हो गया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर (श्रवणबेलगोला) जैनधर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था। पाँचवीं से १२वीं शताब्दी तक दक्षिण के गंग, कदम्ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैनधर्म की बहुत सेवा की। १२१५वीं शती तक गुजरात, राजस्थान और मध्य भारत में जैनधर्म का काफी उत्कर्ष हुआ। लोकाशाह के नेतृत्व में मूर्तिपूजा के विरोध में शुरू हुए जैन-आन्दोलन और कबीर की समाज-सुधार-क्रान्ति का समय एक ही है। __एक विराट जन आंदोलन जहाँ हो रहा हो और जो अपने युग के प्रमुख दर्शनों में से एक हो, कबीर जैसे सारग्राही संत की तत्सम्बन्धी अभिज्ञता सहज और अनिवार्य है। अभिज्ञता का परिणाम यह हुआ कि कबीर काफी अंशों में जैनधर्म-दर्शन से प्रभावित हुए। अत: आत्मा विषयक एक-दो मन्तव्यों में मत-वैभिन्य होते हुए भी बहुत अंशों में जैनधर्म-दर्शन और कबीर के चिन्तन में साम्य है। इस देश की भाषागत उन्नति में जैनमुनि सहायक रहे हैं। प्रत्येक काल एवं
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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