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________________ जैन दर्शन और कबीर : एक तुलनात्मक अध्ययन ३७ ईंटों एवं पत्थरों से बने हुए जड़ भवनों में परमात्मा की खोज नहीं करते। इनकी दृष्टि में देह-देवालय में स्थित परमात्मा और मुक्ति में निवास करने वाले निर्मल ज्ञानादि-सम्पन्न परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । वे कहते हैं 'जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ मं करि भेउ । । २१ तथा 'देहा देवलि सिउ वसइ तुहुँ देवलइँ णिएहि । हासउ महु मणि अत्थि इहु सिद्धे भिक्ख ममेहि ।। २२ सन्त कबीर भी शरीर को देवालय मानते हैं। वे कहते हैं कि 'कबीर दुनियां देहुरै, सीस नवांवण जाइ । हिरदा भीतर हरि बसै, तूं ताही सौं ल्यो लाइ ।' ईसा की पाँचवीं शताब्दी से जैन धर्म में मूर्तिपूजा की परम्परा का स्पष्ट विकास होता हुआ हमें दिखाई देता है । ईसा की १४वीं शताब्दी तक तो मूर्ति-पूजन की परम्परा इतनी आगे बढ़ गई थी कि आचार्य सकलकीर्ति ने अपने प्रश्नोत्तर - श्रावकाचार में प्रत्येक श्रावक को अपने घर में जिनबिम्ब को स्थापित करने का उपदेश देते हुए यहाँ तक लिख दिया कि - 'यस्य गेहे जिनेन्द्रस्य बिम्बं न स्याच्छुभप्रदम् । पक्षिग्टहसमं तस्य गेहं स्यादतिपापदम् ॥' अर्थात् जिसके घर में शुभफलदायक जिनेन्द्र का बिम्ब (मूर्ति) नहीं है, उसका घर पक्षियों के घोंसले के समान है और पापदायक है। तो दूसरी ओर मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध करने वाली परम्पराओं का तुमुलनाद भी हमें सुनाई देता है। समय-समय पर मूर्तिपूजा के विरोध में जैन आचार्यों ने आवाज उठाई है। स्थानकवासी परम्परा की तो शुरुआत ही इसी नींव पर हुई है। इसी प्रकार तेरापंथी और दिगम्बर तारणपंथी सम्प्रदायों ने मूर्तिपूजा का खुलकर विरोध किया है। दिगम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में भी अभ्रदेव जैसे जिनपूजा, श्रुतपूजा और मुनिपूजा को मानने वाले आचार्य भी अन्तरंग शुद्धि को विशेष महत्त्व देते हुए दिखाई
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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