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________________ ३६ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ पर उक्त प्रभाव नहीं पड़े या नहीं पड़े होंगे। हम तो यह बताना चाहते हैं कि कबीर की भक्ति पर जैनभक्ति का भी प्रभाव पड़ा है। उदाहरणार्थ 'मेरा मन सुमिरे राम कुँ, मेरा मन रामहिं आहिं। अब मन रामहिं है रौ, सीस नवावौं काहि।।' कबीर की उक्त साखी का सीधा संबंध पंचरात्रों आदि से जुड़ता है या नहीं, इसका विवेचन करना हमारा अभिप्रेत नहीं है। लेकिन मनि योगीन्द (छठी शती) और मुनि रामसिंह (११वीं शती) के निम्न दोहे से इसका सीधा सम्बन्ध अवश्य प्रतीत होता है 'मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरू वि मणस्स। बीहि वि समरसि हवाहँ पूज्ज चडावउँ कस्स।।१९ मण मिलियउ परमेसरहो परमेसरु जि मणस्स। बिण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चडावउँ कस्स'।।२० आत्मा-परमात्मा की समरसता की स्थिति का दिग्दर्शन जिन शब्दों में मुनि योगीन्दु और मुनि रामसिंह ने कराया है, कबीर ने भी उन्हीं भावों को उन्हीं शब्दों में अभिव्यक्त किया है। जब कबीर कहते हैं पूजा न करूँ, न निमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमसकारूँ।' तब स्पष्ट ही वे शुद्ध परमतत्त्व की भक्ति करते प्रतीत होते हैं। कबीर की सुगुरु भक्ति तो प्रसिद्ध है ही। वे कहते हैं 'अनेक जनम का गुर-गुर करता, सतगुर तब भेदांनां। सद् गुरु से, योग्य गुरु से दीक्षा लिए बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। क्या दीपशिखा की अनुपस्थिति में कहीं अंधकार मिट सकता है। यह भक्ति, ज्ञान एवं चारित्र से भी श्रेष्ठ है। इसका लक्ष्य लौकिक भोग-विलास अथवा स्वर्ग प्राप्ति नहीं है। यहाँ किसी आडम्बर और कामना को भी स्थान नहीं हैं। इस विषय में कबीर और जैन दर्शन दोनों एकमत हैं। सभी रहस्यवादी जैन कवियों का यह विश्वास रहा है कि परमात्मा का निवास देह रूपी देवालय में है। ये आत्मज्ञानी साधक
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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