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जैन दर्शन और कबीरः एक तुलनात्मक अध्ययन ३३ तो ज्ञानस्वरूप मान लेते हैं, कहीं ज्ञान-विवर्जित भी कह देते हैं। वेदान्तदर्शन में ज्ञाताज्ञान-ज्ञेय की त्रिपुटी का ब्रह्म में अभाव माना गया है। हो सकता है, इसी प्रभाववश कबीर मुक्त आत्माओं को कहीं-कहीं ज्ञानविवर्जित कह देते हैं।
___अनात्म में आत्मबुद्धि, अदेव में देवबुद्धि, कुगुरु में गुरुबुद्धि, अधर्म में धर्मबद्धि, अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि, संसारमार्ग में मोक्षमार्ग बुद्धि के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कबीर का 'माया' शब्द शंकर के अद्वैतवाद की अपेक्षा जैनदर्शन के मिथ्यात्व विषयक निरूपण के अधिक समीप है। 'माया को अंग' में कबीर ने 'माया' के विभिन्न अर्थ स्वीकृत किए हैं। यथास्वादरूपी उग्रविषयरूपी बाण मारने वाली, भांड बनाने वाली, आशा, तृष्णा, धन-दौलत, मान-सम्मान की भूख, दीनता, आसक्ति, विषयासक्ति इत्यादि जो इस तथ्य के स्पष्ट सूचक हैं कि यह दुनियाँ भ्रमरूप नहीं है,अपितु वास्तविक है। भ्रम तो आत्मा की कुमति का है (मिथ्यात्व का है), जो उसे स्वरूप-ज्ञान, स्वरूप-प्रतीति, स्वरूप-श्रद्धा, स्वरूप-साक्षात्कार, स्वरूप-अनुभूति एवं स्वरूप-रमण नहीं करने देती, अपितु पर-द्रव्य की ओर उन्मुख करती है। यह स्वरूप-च्युति ही मिथ्यात्व है, जो जैन-दर्शन सम्मत है।
कबीर के यत्र-तत्र बिखरे हुए स्फुट विचारों की उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर कर्मवादी पहले हैं, ईश्वरवादी बाद में। यह कर्म दो प्रकार का है- (द्रव्य कर्म और भाव कर्म) जैन दर्शन में जिसे 'भाव कर्म' कहा गया है, कबीर उसे 'भरम' (मिथ्यात्व) कहते हैं और जैनदर्शन-सम्मत द्रव्यकर्म को 'करम' कहते हैं
यह तन तौ सब बन भया, करम भये कुल्हाड़ि। आप आप कू काटि हैं, कहैं कबीर विचारि।।...... भरम करम दोऊ गवाई।'
वैदिकों में श्राद्ध का विधान है, जिसके अनुसार एक के कर्म का फल दूसरे को मिल सकता है। बौद्ध भी प्रेतयोनि को मानते हैं अर्थात् प्रेत के निमित्त जो दानपुण्यादि किया जाता है, प्रेत को उसका फल मिलता है। परन्तु जैन धर्म में प्रेतयोनि नहीं मानी गई है। संभव है कि कर्मफल के असंविभाग की जैन मान्यता का यह भी एक आधार हो। जैन शास्त्रीय दृष्टि तो यही कहती है कि कर्म करने वाले को ही उसका फल भोगना पड़ता है, कोई दूसरा सगा-संबंधी उसमें भागीदार नहीं बन सकता।
कबीर भी कहते हैं- 'आप करै आपै दुख भरिहैं'।९ ।
जैनदर्शन के अनुसार सिद्धदशा पाप-पुण्य दोनों से परे हैं। कबीर का चरमसाध्य भी वही है
'अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति।