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३२ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ व्यवस्थित विचार-सरणी का प्रसाद यद्यपि कबीर नहीं दे पाए हैं, क्योंकि किसी विशिष्ट दर्शन-प्रणाली के अन्तर्गत उनका अध्ययन ही नहीं हो पाया था। दूसरे, वे कवि-हृदय थे, कवि अपनी कविता में दर्शन-शास्त्र का प्रवेश कल्पना के ताने-बाने में/परिधान में ही कराना चाहता है, सीधे-सीधे नहीं।
उदाहरण के लिए आत्मा जैसे सर्वमान्य तत्त्व की परिभाषा भी कबीर ने कहीं नहीं दी है। लेकिन आत्मानुभव अवश्य किया है और उस आत्मानुभव का कथन करना, उनके लिए गूंगे के गुड़ के स्वाद के समान है
'आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पछै बात। सो गूंगा खाइ कै, कहै कौन मुख स्वाद ॥५
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि जब जीव अज्ञान और मोह की नींद से जागता है, तब वह सम्यग्दृष्टि बनता है, तब उसे अपने में और परमात्मा में स्वरूप-दृष्टि से कोई अन्तर नज़र नहीं आता। लेकिन कबीर जब भक्ति-दृष्टि से जीव को ब्रह्म का अंश मानते हैं तब उनकी इस मान्यता का मेल भगवद्गीता (१५/७) के साथ तो बैठ जाता है, परन्तु जैनदर्शन के साथ नहीं बैठता। क्योंकि यहाँ ब्रह्म से जीव की उत्पत्ति नहीं मानी गई है। आत्मा की अजीव से पृथकता, उसके विभिन्न नाम आदि के विषय में कबीर और जैनदर्शन के मन्तव्य समान हैं।
अरिहन्त और सिद्ध के रूप में जैनदर्शन में क्रमश: सगुण-साकार व सगुणनिरंकार ब्रह्म की उपासना का विधान है; यहां अवतारवाद, एकेश्वरवाद या सृष्टिकर्तृत्ववाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी प्रकार मिलते-जुलते भाव कबीर में भी प्राप्त होते हैं। तथापि परमतत्त्व के विषय में कबीर को और उनके ब्रह्म को-दोनों को ही समझना मुश्किल प्रतीत होता है
'जस त तस तोहि कोई न जाना। लोग कहें सब आन हि आना।।'
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि कबीर सगुण अवतारवाद के समर्थक हैं अथवा ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं है। सच तो यह है कि वे अपने इष्टदेव को किसी भी नाम से, चाहे वह सगुणवाची हो या निर्गुणवाची, पुकारने में संकोच या हिचक का अनुभव नहीं करते। अन्तर केवल इतना ही है कि जैनदर्शन में अनेक शद्ध आत्माएँ अनेक ब्रह्म बन जाती हैं और कबीर के मत से अनेक आत्माएँ एक ही ब्रह्म के अनेक रूप हैं और यह मौलिक भेद ही जैनदर्शन और कबीर में असमानता पैदा करता है। लेकिन परमात्मस्वरूप में कोई तात्त्विक भेद दोनों ही जगह दृष्टिगोचर नहीं होता। मुक्त आत्माओं को जैनदर्शन ज्ञानस्वरूप मानता है, कबीर कहीं