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३४ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
जहाँ कबीरा बंदिगी, तहाँ पाप पुनि नहीं होति।।१०
स्वर्ग और नरक की कल्पना चार्वाकेतर समस्त भारतीय दर्शनों को मान्य है। अन्तर सिर्फ इतना है कि वैदिक परम्परा में स्वर्ग काम्य हो सकता है, लेकिन श्रमणपरम्परा में स्वर्गप्राप्ति को भी भव-भ्रमण कहा गया है। इस दृष्टि से कबीर श्रमण-परम्परा के अधिक नजदीक दिखाई देते हैं। क्योंकि वे स्वर्ग और नरक को सुख-दुःख का भोग स्थान मानते हैं।११
जैन दर्शन में 'सम्यक् दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान, चारित्र के समन्वय को 'मोक्षमार्ग, कहा गया है। कबीर की भी हतन्त्री इसे स्वीकार करती प्रतीत होती है
'दीपक पावक आंणिया, तेल भी आंण्या संग। तीन्यूं मिलि करिजोइया, उड़ि-उड़ि पड़े पतंग।।१२ ।
यहाँ दीपक ज्ञान का प्रतीक है, तेल श्रद्धा (दर्शन) का और पावक तप संयम रूपी चारित्र का प्रतीक है। तीनों का समन्वय जब होता है, तब कर्म रूपी पतंगे इस साधनाग्नि में गिर-गिर कर समाप्त हो जाते हैं।
जैन दर्शन में व्यक्तिगत धर्म-धारणा की दृष्टि से चारित्र के दो रूप प्राप्त होते हैं- अगार चारित्र धर्म अर्थात् गृहस्थाचार और अनागार चारित्र धर्म अर्थात् साध्वाचार। इन दोनों की आचार प्रणाली का व्यवस्थित एवं सूक्ष्म निरूपण भी वहाँ किया गया है।
कबीर ने इस प्रकार की कोई आचार संहिता नहीं बताई, क्योंकि वैसा करना न तो उनका उद्देश्य था, न ही उनसे वैसा संभव ही था। लेकिन शोध करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावकाचार और साध्वाचार के अधिकांश घटकों से कबीर के विचार मेल खाते हैं। यदि श्रावक के १२ व्रतों एवं प्रतिमाओं तथा साधु के ५ महाव्रतों के नाम विधान को महत्त्व न दिया जाए, तो कबीर का विरोध किसी भी आचार से नहीं है। रही कर्मकांडीय पाखंड की बात, तो वहाँ भी जैन दर्शन और कबीर दोनों एकमत हैं। दोनों एक स्वर से उसका विरोध करते हैं।
बहुत से विद्वानों की यह धारणा है कि जैन धर्म में भक्ति का कोई स्थान नहीं है, किन्तु हम यहाँ इस सम्बन्ध में तीन तथ्य स्पष्ट करना चाहते हैं- पहला यह है कि जैन धर्म में 'भक्ति' शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र बहुलता से मिलता है। यहाँ भक्ति भी शुद्ध एवं सात्विक तथा निष्काम की जाती है, जो परमात्मा का सान्निध्य पाने के लिए सर्वोत्कृष्ट उपाय है तो बुराइयों से बचने के लिए रक्षा कवच भी है तथा अपने इष्टदेवादि के गुण अपने भीतर प्रकट करने का साधन भी है।
दूसरा यह कि पतञ्जलि१३, गीताकार१४, शाण्डिल्य१५ और नारद१६ ने भक्ति