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३० श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ स्थान था और उनकी परम्परा में जो लोग अहिंसा तथा तपश्चर्या के मार्ग पर बढ़ते रहे, उन्होंने जैन धर्म का पथ प्रशस्त किया। प्रश्न हो सकता है कि महावीर ने वेदों की अवहेलना क्यों की? इसका भी उत्तर दिनकर जी के शब्दों में यही है कि अहिंसा-धर्म और ब्राह्मणों के यज्ञवाद में कुछ तात्त्विक विरोध था और ब्राह्मण-सत्ता तथा यज्ञवाद की प्रभुता के मुकाबले में अहिंसा का खुलकर प्रचार करने के लिए यह आवश्यक था कि वेदों का विरोध किया जाए। जैनदर्शन के सिद्धान्त
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् या पदार्थ उत्पाद्-व्यय-और ध्रौव्यात्मक है। अवस्थाओं के प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहने पर भी मूलभूत द्रव्य ज्यों-का त्यों अवस्थित रहता है। जैसे-पुराना पानी चले जाने और नया पानी आते रहने पर भी गंगा गंगा ही रहती है।
जैनधर्म यह मानता है कि सृष्टि अनादि है और वह जिन छ: तत्त्वों से बनी है, वे तत्त्व भी अनादि हैं। ये छ: तत्त्व हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल। इन छ: तत्त्वों में से केवल पुद्गल ही ऐसा द्रव्य है, जिसका अनुभव पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से किया जा सकता है। इसलिए उसे 'मूर्त' द्रव्य कहते हैं। शेष पांच द्रव्य अमूर्त हैं। दूसरी बात यह है कि इन छहों द्रव्यों में से केवल जीव ही चेतनायुक्त है, शेष पाँचों द्रव्य अचेतन हैं।
जैनदर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल का संयोग ही संसार है। यहाँ दृश्यमान प्रकृति का विश्लेषण करके उसे आणविक रचना बतलाया गया है तथा जीव के निष्क्रिय किंवा मात्र साक्षी रूप की जगह उसे सक्रिय माना गया है, अर्थात् जीव स्वयं अपने कार्यों का कर्ता है और अपने सुख-दुःख का भोक्ता है, वह चाहे तो अपने प्रबल आत्मपुरुषार्थ के बल पर पूरे जड़ जगत् से संबंध-विच्छेद करके पूर्णमक्ति प्राप्त कर स्वयं परमात्मा बन सकता है। इस प्रक्रिया में किसी भी सृष्टिकर्ता ईश्वर की दखलन्दाजी जैनदर्शन को मान्य नहीं है। नैतिक मूल्यांकन के लिए यह स्वीकार करना आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य इस संसार में अपने को बना एवं बिगाड़ सकता है और यह कि आत्मा का एक पृथक् अस्तित्त्व है, जिसे वह अपने मोक्ष की अवस्था में अक्षुण्ण बनाए रखती है।
जैन-दर्शन की मुख्य विषेशताएँ हैं- इसका प्राणिमात्र का यथार्थरूप में वर्गीकरण, इसका ज्ञान-संबंधी सिद्धान्त जिसके साथ अनिवार्य रूप से संयुक्त हैं इसके प्रख्यात सिद्धान्त -अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगीनय और इसका संयमप्रधान आचारशास्त्र।