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जैन दर्शन और कबीर: एक तुलनात्मक अध्ययन जिस प्रकार बौद्ध बुद्ध के अनुयायी हैं, शैव शिव के तथा वैष्णव विष्णु के, उसी प्रकार जैन 'जिन' के अनुयायी कहे जाते हैं। 'जिन' शब्द किसी व्यक्ति का नहीं, अपितु गुणों का वाचक है, अवतारवाद की नहीं, अपितु उत्तारवाद की प्रतिष्ठा करता है और इस प्रकार प्रकारान्तर से मानव के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का उन्नायक है।
मानवता के इतिहास में जैनधर्म-दर्शन ने सदा से ही विश्व-मानव की सेवा की है। अनेकों बार राज्याश्रय मिला, तब भी बिना किसी भेदभाव के अपनी उदार सर्वधर्म सहिष्णुता का इसने परिचय दिया है।
शिशुनागवंश, वैशाली गणतंत्र के शासक, नन्दवंश, अशोक के अतिरिक्त समस्त मौर्यवंशी राजा, दक्षिण के राष्ट्रकूट, गंग, कदम्ब तथा चालुक्य राजा, गुजरात के महाराजा जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल आदि राजाओं का तो यह राष्ट्रधर्म या कुलधर्म या निजीधर्म था।
भारतीय दर्शन के इतिहास में जैनदर्शन का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपने प्रारम्भकाल में जैनधर्म-दर्शन ने वैदिक यज्ञों में विहित हिंसक क्रियाओं का घोर विरोध किया। लोकमान्य तिलक के शब्दों में 'भारत से हिंसात्मक यज्ञों का निर्मूलन करने का श्रेय जैनियों को है। ऋग्वेद के आधार पर हम कह सकते हैं कि इस विरोध को प्रारम्भ करने का श्रेय तत्कालीन व्रात्य-परम्परा को है, जिसे आगे चलकर महावीर ने पूर्णता प्रदान की।
जैन दर्शन को अवैदिक कहा जाता है, क्योंकि यह वेदों की अपौरुषेयता को स्वीकार नहीं करता। यह अपनी दर्शन-पद्धति को भी 'जिन' की दैवीय प्रेरणा का रूप नहीं देता। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में, 'इसका दावा केवल इतना ही है कि यह दर्शन चूँकि यथार्थता के अनुकूल है, इसलिए इसे स्वीकार करना चाहिए।
जैनधर्म की दो बड़ी विशेषताएँ अहिंसा और तप हैं। ‘जैनधर्म का अहिंसावाद वेदों से निकला है'- ऐसा कहकर कुछ विद्वान् जैन-अहिंसा-सिद्धान्त को वेदों से उधार लिया हुआ मानते हैं। लेकिन उन्हें शायद यह मालूम नहीं है कि ऋषभदेव और अरिष्टनेमिजैनधर्म के इन दो तीर्थंकरों का उल्लेख वेदों में मिलता है, जिन्होंने अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा के लिए अपने राजसी जीवन की सुख-सुविधाओं को भी ठोकर मार दी थी। जिनकी साधना का मेल ऋग्वेद की प्रवृत्तिमार्गी धारा से कथमपि नहीं बैठता। इसलिए तर्कसंगत यही है कि अहिंसा और तप की परम्परा प्राग्वैदिक थी, वेदों के गार्हस्थ्यप्रधान युग में वैराग्य, अहिंसा और तपस्या के द्वारा धर्म पालन करने वाले जो अनेक ऋषि थे, उनमें महायोगी, योगेश्वर, योग तथा तपमार्ग के प्रवर्तक श्री ऋषभदेव का अन्यतम