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२२ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ की हिंसा न करें। अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है बस, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए।१९ किन्तु अहिंसा की पूर्ण परिभाषा आवश्यकसूत्र में प्राप्त होती है। उसमें कहा गया है कि किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा नहीं करनी चाहिए, यही अहिंसा है।२० मन, वचन और कर्म तीन योग कहलाते हैं तथा करना, करवाना और अनुमोदन करना तीन करण कहलाते हैं। इस तरह नौ प्रकार से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अहिंसा के दो रूप होते हैं- निषेधात्मक और विधेयात्मक। इन्हें निवृत्ति और प्रवृत्ति भी कहा जाता है। दया, दान आदि अहिंसा के प्रवृत्यात्मक रूप हैं। यहाँ अहिंसा की विस्तृत व्याख्या न करके इतना कहना आवश्यक है कि जैन परम्परा में हर गतिशील वस्तु, चाहे वह जल, वायु, ग्रह-नक्षत्र ही क्यों न हो या पत्थर, वृक्ष जैसी गतिशून्य वस्तु ही क्यों न हो, उनमें भी जीवनशक्ति को स्वीकार किया गया है। यहाँ पर शंका उपस्थित हो सकती है कि जैन दर्शन पूर्ण जीवदयावाद या पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है फिर वह मानववादी कैसे हो सकता है? यह सच है कि जैन दर्शन पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है और इस दृष्टि से यहाँ उसका दृष्टिकोण मानवतावादी (Humanitarianistic) हो जाता है, लेकिन मात्र इस आधार पर जैन दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कई सन्दर्भो में तो वह मानववाद से भी आगे है। जैन धर्म अहिंसा के निषेधात्मक रूप पर ही विशेष बल देता है। पूर्व काल में जैनाचार्यों ने अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत किया है और आज भी श्वेताम्बर तेरापंथी जैन समाज अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही मानता है। अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष दया, दान आदि में उनका विश्वास नहीं है। जो जैन परम्परा के मानववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। यदि मात्र अहिंसा के सिद्धांत को लेकर सम्पूर्ण जैन दर्शन की व्याख्या करेंगे तो यह उसके प्रति अन्याय होगा। अहिंसा सिद्धान्त के अनुसार सभी जीव समान हैं, अत: किसी को दु:ख नहीं पहुँचाना चाहिए। किन्तु मानववाद के अनुसार मनुष्य की सत्ता ही प्रधान है यदि किसी विषैली दवा का अविष्कार होता है तो मानववादी के अनुसार उसका प्रथम प्रयोग मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी भी जीव पर किया जा सकता है,जबकि मानवतावाद इसकी इजाजत नहीं देता। अत: अहिंसा सिद्धान्त मानववाद (Humanism) की कसौटी पर पूर्णत: खरा नहीं उतरता । मानववाद और जैन दर्शन की विश्वदृष्टि
लोमोण्ट एक प्रजातांत्रिक मानववादी हैं। उनके अनुसार मानववाद मानव जाति का विश्वदर्शन है। यही एक दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की आत्मा और उसकी आवश्यकताओं के लिए उपयोगी है। यह वह दर्शन है जो मानव जीवन और उसके अस्तित्व का सामान्यीकरण है, जो प्राय: सभी देशों और जातियों को समष्टिपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। जैन धर्म-दर्शन भी लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ता है। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सिद्धान्त उसकी विश्वदृष्टि