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________________ २१ जैन दर्शन का मानववादी दृष्टिकोण कहलाता है। “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। उन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं- 'गुण' और 'पर्याय'। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता उन्हें गुण कहते हैं, जैसे- मनुष्य में-मनुष्यत्व', सोना में 'सोनापन'। मनुष्य में यदि मनुष्यत्व न हो तो वह और कुछ हो सकता है, मनुष्य नहीं। इसी प्रकार यदि सोना में 'सोनापन' न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य हो सकता है, सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है, जबकि पर्याय बदलते रहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन स्थायित्व और अस्थायित्व का समन्वय करते हुए कहता है कि वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है। ब्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा गया है- हम, जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी है। अपने निज-स्वरूप से है और पर-स्वरूप से नहीं है। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पिता-रूप में सत् है और पर-रूप की अपेक्षा से पिता, पिता-रूप में असत् है। यदि पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जायेगा, जो असम्भव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं- गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री कहता है। इसी प्रकार कोई उसे ताई, कोई मामी तो कोई फूफी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है आदि। इस संघर्ष का समाधान अनेकान्तवाद करता है। वह कहता है कि यह तुम्हारे लिए माँ है, क्योंकि तुम इसके पुत्र हो; अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है। वृद्ध से कहता है कि यह पुत्री भी है, आपकी अपेक्षा से, सब लोगों की अपेक्षा से नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। तात्पर्य है हम जो कुछ भी कहते हैं उसकी सार्थकता एवं सत्यता एक विशेष सन्दर्भ में तथा एक विशेष दृष्टिकोण से ही हो सकती है। केवल अपनी ही बात को सत्य मानकर उस पर अड़े रहना तथा दूसरों की बात को कोई महत्त्व न देना एक मानसिक संकीर्णता है और इस मानसिक संकीर्णता के लिए मानववाद में कोई स्थान नहीं है। मानववाद और अहिंसावाद अहिंसा का सामान्य अर्थ होता है 'हिंसा न करना। आचारांगसूत्र में अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा गया है-“सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और तत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणहार उपद्रव करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म ही शुद्ध है।१८ सूत्रकृतांग के अनुसार- "ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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