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________________ जैन दर्शन का मानववादी दृष्टिकोण २३ ही तो है। अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है- यह अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के सामान, प्यासों के लिए पानी के समान, भूखों के लिए भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है । २१ तीर्थंकर - नमस्कारसूत्र में लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभयदाता आदि विशेषण तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त हुए हैं जो जैन दर्शन की विश्वदृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। २२ विश्वकल्याण की भावना के अनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही तो तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैनाचार्यों ने सदा ही आत्महित की अपेक्षा लोककल्याण को महत्त्व दिया है। यह भावना आचार्य समन्तभद्र की इस उक्ति से स्पष्ट होती है- हे भगवन्, आपकी यह संघ - व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करनेवाली और सबका कल्याण करने वाली है । २३ संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, कुलधर्म आदि का स्थानांगसूत्र २४ में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि जैन धर्म दर्शन -लोकहित, लोककल्याण की भावना से ओतप्रोत है। मानववाद और जैन दर्शन का समतावादी दृष्टिकोण मानववाद और जैनदर्शन दोनों ही समतावाद में विश्वास करते हैं। दोनों की मान्यता है कि समाज़ में विभिन्न वर्ग और विचारधारा के लोग रहते हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि मानव, मानव से अलग हैं। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में मनुष्यता का वास है । व्यक्ति न तो जन्म से और न ही जाति से ऊँचा- नीचा है बल्कि ये सभी अन्तर कर्म के आधार पर होते हैं। कर्म के द्वारा ही वह उच्च पद को प्राप्त करता है और कर्म के द्वारा ही पतन की ओर अग्रसर होता है। जैन परम्परा में इस तरह के कई उदाहरण मिलते हैं। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल के थे जिसके. कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के सिवा कुछ न मिला। वे जहाँ भी गये, वहाँ उन्हें अपमान-रूप विष का प्याला ही मिला। लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो गये । भगवान् महावीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कम्मुणा बंभणों होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा ।। २५ अर्थात् कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है। कर्म से ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र . होता है। अतः श्रेष्ठता और पवित्रता का आधार, जाति नहीं बल्कि मनुष्य का अपना कर्म है। मुनि चौथमलजी के मतानुसार एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में जन्म लेने के कारण समाज में पूज्य, आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊँचा समझा जाय, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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