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१८ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ की बात है तो यह स्पष्ट है कि जैन दार्शनिक पारलौकिकता को स्वीकार करते हुए भी वर्तमान जीवन के प्रति उदासीन नहीं हैं। प्रो० सागरमल जैन के शब्दों में- “नैतिक साधना का पारलौकिक सुख की कामना से कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि पारलौकिक सुख-कामना की दृष्टि से किया गया नैतिक कर्म दूषित होता है। जैन दार्शनिक नैतिक साधना को न ऐहिक सखों के लिए और न पारलौकिक सुखों के लिए मानते हैं, वरन् उनके अनुसार तो नैतिक साधना का एकमात्र साध्य है- आत्मविकास एवं आत्मपूर्णता।' मानव की महत्ता
___मानव की महत्ता को न केवल जैनागमों में बल्कि वैदिक ग्रन्थों एवं बौद्ध साहित्यों में भी स्वीकार किया गया है। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है- न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्। अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। धम्मपद में कहा गया है “किच्चे मणुस्स पटिलाभो" अर्थात् मनुष्य जन्म दुर्लभ है।१० गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानव की दुर्लभता को बताते हुए कहा है- "बड़े भाग मानुस तन पावा"। सच, सुकर्मों के परिणामस्वरूप ही यह मानव तन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में मानव की गरिमा को बताते हुए कहा गया है- जब अशुभ-कर्मों का विनाश होता है तब आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र होती है और तभी उसे मानव जन्म की प्राप्ति होती है। ११ कितनी ही योनियों में भटकने के बाद यह मानव शरीर प्राप्त होता है। तभी तो महावीर ने कहा है- “चिरकाल तक इधर-उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से सांसारिक जीवों को मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है, सहज नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा भयंकर होता है। अतएव हे गौतम! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर।'' १२ इतना ही नहीं जैन चिन्तन में मानव को अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तानन्द वाला माना गया है। प्रत्येक मनुष्य में देवत्व प्राप्त करने की जन्मजात क्षमता होती है। प्रत्येक वर्ण एवं वर्ग का व्यक्ति इस पूर्णता की प्राप्ति का अधिकारी है। मानववाद और कर्मवाद
कर्म के विषय में जितनी विस्तृत और सूक्ष्म व्याख्या जैन दर्शन में की गयी है उतनी शायद ही किसी अन्य दर्शनों में की गयी हो। कर्मवाद का एक सामान्य नियम है पूर्व में किये गये कर्मों के फल को भोगना तथा नये कर्मों का उपार्जन करना। इसी पूर्वकृत कर्मों के भोग और नवीन कर्मों के उपार्जन की परम्परा में प्राणी जीवन व्यतीत करता रहता है। किन्तु प्रश्न उठता है कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के उपयोग का भी अवसर प्राप्त होता है या मशीन की भाँति पूर्व कृत कर्मों के फल को भोगता हुआ तथा नवीन कर्मों का बन्ध करता हुआ गतिशील रहता है? ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत इच्छा-स्वातंत्र्य को स्थान दिया गया है। वह इस रूप में कि पूर्वकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में अवश्य भोगना