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________________ जैन दर्शन का मानववादी दृष्टिकोण १९ पड़ता है, किन्तु नये कर्मों के उपार्जन करने में वह किसी सीमा तक स्वतंत्र है। यह सत्य है कि कृतकर्म का भोग किये बिना जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती, किन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि प्राणी अमुक समय में अमुक कर्म ही उपार्जित करे। वह बाह्य परिस्थिति एवं अपनी आन्तरिक शक्ति को ध्यान में रखते हुए नए कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। इन बातों से स्पष्ट होता है कि कर्मवाद में इच्छा स्वातंत्र्य तो है किन्तु सीमित है, क्योंकि कर्मवाद के अनुसार प्राणी अपनी शक्ति एवं बाह्य परिस्थितियों की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सकता । जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। जैन विद्वान् पद्मनाभ जैनी के अनुसार - " जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिये जाने पर कृतकर्म हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ते हैं। मेरा स्वातंत्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। मैं स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, किन्तु मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता । १३ कर्म के आधार पर व्यक्ति देवत्व को प्राप्त करता है- अर्थात् मानव स्वयं अपना भाग्यविधाता है। ईश्वर आधारित धर्म की विशेषता यह होती है कि वे ईश्वर को मनुष्य के स्तर की ओर खींचते हैं, परन्तु जो धर्म ईश्वर पर आधारित नहीं हैं वे मनुष्य को ईश्वर के स्तर में उठाना चाहते हैं । अर्थात् ईश्वर - अनिर्भर धर्म की विशेषता यह है कि इसमें मनुष्य का आदर्श है - आदर्श मानव । ईश्वर-निर्भरधर्म में कर्म के साथ-साथ ईश्वर की कृपा भी आवश्यक है किन्तु जैन धर्म-दर्शन में ईश्वर की कृपा या हस्तक्षेप का कोई सिद्धान्त नहीं है। यदि मैं चोरी करूँ, झूठ बोलूँ तो उसका दायित्व मेरा है, ईश्वर का नहीं और इसका फल भी मुझे ही भोगना पड़ेगा। ईश्वर में जिन शक्तियों और विशेषताओं की कल्पना की जाती है, वे सब ही जीव में विद्यमान हैं, अत: जैन धर्म आत्म-निर्भरता की शिक्षा देता है। जैन कर्म-सिद्धान्त की ही भाँति मानववाद भी इच्छा - स्वातंत्र्य को मानता है। इच्छा-स्वातंत्र्य का यह अभिप्राय नहीं है कि जो मन में आये वही करें। ऐसे इच्छा - स्वातंत्र्य के लिए न तो मानववाद में कोई स्थान है और न ही जैन कर्मवाद में | जिस प्रकार जैन कर्मवाद यह स्वीकार करता है कि मानव स्वयं अपना भाग्यविधाता है उसी प्रकार मानववाद भी मानता है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी दैविक शक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। साथ ही मानववाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम के आधार पर करता है । इसी प्रकार जैन दर्शन व्यवहार-दृष्टि से कर्म - परिणाम को और निश्चय - दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य और अनौचित्य के निर्णय का आधार मानता है।
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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