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________________ जैन संदर्भ में अचेतन द्रव्य व्यवस्था ११ जड़ पदार्थ या वस्तु को जैन दर्शन के अन्तर्गत पुद्गल के नाम से जाना जाता है। इस अजीव द्रव्य की परिभाषा देते हुए ऐसा विचार व्यक्त किया गया है- 'जिस भौतिक द्रव्य का संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुद्गल द्रव्य है। इसलिए पुद्गल को ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे जोड़कर हम बहुत बड़ा बना सकते हैं और इसे हिस्सों में बांटकर छोटा से छोटा भी बना सकते हैं। यह सीमित और मूर्त रूप है और इसमें आठ प्रकार के स्पर्श, पाँच प्रकार के रस, दो प्रकार के गंध और पाँच तरह के रूप पाये जाते हैं । १६ जीव की प्रत्येक क्रिया इसके रूप में अभिव्यक्त होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उसके अणुओं से अनुभव की सारी वस्तुएँ बनी हैं, जिसमें प्राणियों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ और मानस भी शामिल हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जीवों का निवास सभी अणुओं के अन्दर होता है और इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् वस्तुतः जीवों से युक्त है। ये कर्म के रूप में भी होते हैं और इन्हीं कर्म पुद्गलों के सम्पर्क से जीव 'बद्ध' होता है। पुद्गल के 'सरल' या 'आणविक' और 'स्कन्ध' या 'यौगिक' दो रूप होते हैं। जब किसी वस्तु का विभाजन किया जाता है, तो अन्त में एक ऐसी अवस्था आती है, जहाँ वस्तु का और विभाजन सम्भव नहीं होता। उसी अविभाज्य अंश को 'अणु' कहा जाता है । १७ अनेक परमाणुओं के संगम से जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध या संघात कहते हैं। सब प्रत्यक्ष योग्य वस्तुएँ स्कन्ध या यौगिक हैं । १८ स्कन्धों के विभाजन के फलस्वरूप अन्ततः अणु या परमाणु की प्राप्ति होती है। यद्यपि परमाणु नित्य है तथापि स्कन्धों के टूटने से उसकी उत्पत्ति होती है। दो अणुओं के मेल से द्विप्रदेश और द्विप्रदेश तथा एक अणु को मिलाकर त्रिप्रदेश बनता है। इसीप्रकार बड़े और सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तैयार होते हैं। आधुनिक रसायन विज्ञान में जिस अणु का उल्लेख किया गया है, वह जैन साहित्य में वर्णित अणु की तरह नहीं है। आधुनिक विज्ञान के 'अणु' को विभाजित किया जा सकता है, पर जैन दर्शन का अणु तो मूल कण है, जिसका अपना स्वयं का अस्तित्व है और उसमें कोई मिश्रण नहीं होता जिसे विभाजित किया जा सके। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूल, संस्थान, आकार, अंधकार, छाया, प्रकाश और आतपये सभी पुद्गल के प्रमाण हैं। १९ अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है, पर जैन विद्वानों ने इसे एक अलग मौलिक गुण के रूप में स्वीकार नहीं किया है, बल्कि वे शब्द को स्कन्ध या आगन्तुक गुण बतलाते हैं । २° इसके प्रमाण में यह कहा जाता है कि यदि शब्द आकाश का गुण होता, तो इसे मूर्तिक कर्णेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाश का गुण भी अमूर्तिक ही होता है और अमूर्तिकको मूर्ति इन्द्रिय नहीं जान सकती । जो वस्तुमात्र के परिवर्तन में सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहा जाता है। जैन आचार्य उमास्वाति ने द्रव्यों की वर्तना, परिणाम क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व 'काल' के कारण ही संभव माना है । २१ द्रव्यों के परिणाम और क्रियाशीलता की व्याख्या काल
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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